Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe Publisher: Parshwanath Shodhpith VaranasiPage 20
________________ प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन को प्रेरणा स्रोत महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी म. सा. लगभग ५२ वर्ष पूर्व विक्रम संवत् १९४२ में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में सप्तमी के दिन राजकोट ( सौराष्ट्र ) से १६ मील दूर सरधार नगर में श्री डूंगरशी भाई की धर्मपरायणा अर्धागिनी श्रीमती शिवकुवंरबहिन ने सरस्वतीरूपा एक पुण्यशीला बालिका को जन्म दिया। दो भाइयों को एकमात्र बहिन भानुमती को पाकर समस्त परिवार प्रसन्नचित था। किन्तु सुख और दुःख का चक्र अबाध गति से चलता रहता है। अभी बालिका को दो वर्ष की आयु भो पूर्ण न हुई थो कि पिता स्वर्गवासो हो गए । कुछ हो वर्षों बाद दोनों प्रिय भ्राता अपनी पूज्य माता और प्यारो बहिन को असहाय छोड़कर अपने पिताश्री के पास हो पहुंच गए। इससे माता के हृदय को बड़ा आघात लगा। संसार की अनश्वरता का बोध इतना तोव बन गया कि सांसारिक मोह-माया को तोड़कर भागवतो दीक्षा लेने की प्रेरणा बलवती हो गई। माता शिवकुंवर साध्वी शोलवतो बनी और पुत्रो निजशिष्या के रूप में साध्वी मृगावतो बन गई। पूज्य साध्वी शीलवतो जो का लक्ष्य यहो रहा कि "मृगावतो" अधिक से अधिक आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर जगत् को ज्ञान-प्रकाश दे सके। साध्वी श्री मृगावतो जी ने भी विद्या अध्ययन में अपना मन लगा दिया। श्री छोटेलाल जो शास्त्रो, पं० बेचरदास जो दोशी, पं० सुखलाल जी, पं० दलसुखभाई मालवणिया, आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजय जी आदि विद्वत् वर्ग के सान्निध्य में आपका अध्ययन हुआ। १९५३ में कलकत्ता में हुई सर्व-धर्म-परिषद् में जब आपने जैन धर्म का प्रतिनिधित्व किया तो आपको भाषण कला और ज्ञान को धाक चारों ओर फैल गयो। लाखों को संख्या में जैन और अजैन आपका सार्वजनिक भाषण सुनने को लालायित रहने लगे। _ पंजाब केसरी श्री गुरुवल्लभ ने आपको योग्य जानकर पंजाब पधारने का आदेश भेजा। गुरु-आज्ञा शिरोधार्य कर आपने तुरन्त कलकत्ता से विहार कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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