Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 10
________________ ( ग ). की किरणों से अस्पृष्ट हस्तलिखित ग्रन्थों को बाहर निकालने की प्रेरणा दी। अहिंसा और शाकाहार का प्रचार किया। स्याद्वाद की उदार व्याख्या कर हमें सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया और मानवता का पुजारी बनाने का भरसक प्रयास किया। एक बार बम्बई में समस्त श्रोतागण उनकी विश्वमैत्री के प्रति नतमस्तक हो गये जब उनके अन्तः करण से दिव्यध्वनि प्रस्फुटित हुई–'न मैं जैन हूँ, न बौद्ध, न वैष्णव न शैव, न हिन्दू न मुसलमान । मैं तो वीतराग परमात्मा को खोजने के मार्ग पर चलनेवाला एक मानव यात्री हूँ।" जैनों के चारों संप्रदायों की एकता के लिए वे इतने उत्सुक थे कि अपना आचार्य पद छोड़ने को सर्वप्रथम तत्पर थे। उनके अन्तिम उद्गार उनकी जीवन साधना के सजीव द्योतक हैं "मेरी आत्मा यही चाहती है कि साम्प्रदायिकता दूर होकर जैन समाज केवल महावीर स्वामी के झण्डे के नीचे एकत्रित होकर श्री महावीर की जय बोले तथा जैनशासन की वृद्धि के लिए एक जैन विश्वविद्यालय नामक संस्था स्थापित होवे।" युगवीर आचार्य श्री के ये उद्गार उनके देवलोकगमन के २० वर्ष बाद साकार हुए। भ० महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के पावन प्रसंग पर जैन समाज के चारों सम्प्रदायों ने एक ध्वजा के नीचे एकत्रित होकर अपने निकट उपकारी भगवान् वर्धमान महावीर के जय-जयकार का उद्घोष किया। उस समय की एकता का दृश्य अभूतपूर्व और ऐतिहासिक था। शासनसेवा के लिए उनमें अदम्य उत्साह था । वृद्धावस्था उन्हें पराजित करने में सदैव असफल रही। ८० वर्ष की अवस्था में संघ उन्हें आचार्य सम्राट की पदवी से अलंकृत करना चाहता है और वे उत्तर देते हैं कि 'मुझे पद नहीं, काम दो। मेरी चलने की, बोलने की तथा देखने की शक्ति घटी है। तुम मेरी वृद्धावस्था देखकर मुझे आराम करने की सलाह देते हो। हमारे जैसे साधु को आराम से क्या मतलब? शरीर से समाज का जितना कल्याण हो सके, उतना जीवन के अन्त तक करते रहना, हम साधुओं का धर्म है। मेरी भावना यह है कि अभी भी विहार करूं । शिक्षण संस्थाएं खुलवाऊँ।' शिक्षा प्रचार के अग्रदूत तथा साहित्य सेवी-गुरुवल्लभ की सबसे महत्त्वपूर्ण और महती देन शिक्षा के क्षेत्र में है। अपने गुरुदेव के अन्तिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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