Book Title: Jain Tattvagyan Mimansa
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 5
________________ प्रकाशकीय AM जून १९८० में वोर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट से 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' नामके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका प्रकाशन हुआ था । इसके लेखक देश और समाज के प्रख्यात विद्वान् डॉ० दरवारोलालजी कोठिया न्यायाचार्य, वाराणसी है, जो ट्रस्टके ऑनरेरी मत्री भी हैं और ट्रस्टके कार्योंको बड़े उत्साह एव लगनसे करते हैं | यह ग्रन्थ विद्वद् जगत् में बहुत समादृत और उपादेय हुआ है । अनेक विश्वविद्यालयोकी लायब्रेरियो, सरस्वतीभवनों और मन्दिरोने क्रय करके इसे मँगाया 1 अनेक जिज्ञासु जैन-जैनेतर विद्वानो और साघुसन्तोने भी पुस्तक विक्रेताओंसे इस ग्रन्थको खरीदा है और इसे एक मन्दर्भ-ग्रन्थ माना है । इसमें सन्देह नही कि इसमें जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र से सम्वन्धित अनेक विषयोपर गहरा और अनुसन्धानपूर्ण विमर्श किया गया है । अनेक ग्रन्थकारो और उनके ग्रन्थोपर बिलकुल नया प्रकाश डाला गया है, जिसका उपयोग अन्य विद्वानोने भी अपने ग्रन्थो में प्रमाणरूपमें किया । 'तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' जैसे विषयो और आचार्य विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, अभिनव धर्मभूषण जैसे ग्रन्थकारोके समय आदिमें जो अनिश्चितता थी, उसे इसमें दूर किया गया है और जिसे सभीने स्वीकार किया है । स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डकश्रावकाचारपर कर्तृत्वविषयक ऊहापोहपूर्ण विपुल सामग्री भी इसमें समाहित है, जो महत्त्वपूर्ण है । हमें प्रसन्नता है कि आज डॉक्टर कोठियाके एक अन्य ग्रन्थ 'जैन तत्त्वज्ञान-मीमांसा' को भी हम प्रकाशित कर रहे है । इसमें जैन तत्त्वज्ञानकी विभिन्न विधामोपर शोधात्मक चिन्तन उपलब्ध है । डॉक्टर कोठिया के द्वारा 'अनेकान्त' आदि पत्र-पत्रिकाओ में लिखे गये अनुसन्धानपूर्ण साठ (६०) निबन्ध इसमें संग्रहीत हैं । इनमें ग्रन्थोकी प्रस्तावनाएँ और अनेक विश्वविद्यालयोंकी संगोष्ठियोंमें पठित शोध- निबन्ध भी सम्मिलित हैं । ये सभी शोधार्थियो के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगे । इसमें तीन खण्ड हैं । प्रथम खण्ड धर्म, दर्शन और न्याय है । इसमें इन्ही विषयोंसे सम्बन्धित २७ निबन्ध हैं | ये निबन्ध जैन दर्शन एव धर्मके जिज्ञासुओके लिए बहुत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण हैं । द्वितीय खण्ड 'इतिहास और साहित्य' है । इस खण्ड में ११ निवन्ध हैं, जो साहित्य और इतिहासविषयक हैं । इन निबन्धो में भी नया और समीक्षात्मक विमर्श किया गया है । 'नियमसारकी ५३ वी गाथा और उसकी व्याख्या एव अर्थपर अनुचिन्तन', 'अनुसन्धानमें पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक', 'अनुसन्धानविषयक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर' जैसे शोध - निबन्धों में प्रामाणिक और विपुल सामग्री निहित है, जो अनेक समस्याओ - प्रश्नोंका समाधान प्रस्तुत करनेमें सक्षम है । खण्डके अन्तमें जैन परम्पराके युगप्रवर्तक एव प्रभावशाली आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य गृद्धपिच्छ और आचार्य समन्तभद्रके जीवन समय और कृतित्वपर सक्षेप में किन्तु सारगर्भ प्रमाणिक प्रकाश डाला गया है। ग्रन्थका तीसरा और अन्तिम खण्ड 'विविध' है । इसमें तीर्थो, पर्वो प्रवासो और विशिष्ट सन्तोविद्वानोंका परिचय निबद्ध है । 'श्रुत पञ्चमी' और 'जम्बूजिनाष्टकम्' ये दो रचनाएँ संस्कृतमें हैं। पहली संस्कृत-गद्यमें और दूसरी संस्कृत-पद्य में है । पहली में 'श्रुत पञ्चमी' पर्व पर ऐतिहासिक प्रकाश डाला गया है और दूसरी में अन्तिम केवली श्री जम्बूकुमारका सस्तवन किया गया है। राजगृहकी यात्रा और कश्मीरकी यात्रा विषयक आलेख भी पर्याप्त जानकारी एव तथ्योंका आकलन प्रस्तुत करते हैं । इस तरह यह खण्ड भारतीय वृति दर्शन केन्द्र कपुर

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