Book Title: Jain Tattva Saragranth Satik
Author(s): Surchandra Gani, Manvijay Gani
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ अने सुख-वैभव-विलासनी झंखना रखा करे छे. केटलाक अज्ञानवश प्राणीओ सद्गुरुना या तो सद्द्बोधना अभावे कष्ट करणी करे छे पण तेनुं फळ कष्टना प्रमाणमां अति अल्प मळे छे. व्यवहारमां पण कहेवाय छे के “ कोटी वर्षना तपसी क्षणमात्रमां गया लपसी " आ बधुं शेनुं परिणाम छे ? अज्ञान क्रियानुं अथवा तो अपक्व ज्ञानदशानुं. कारण के कं छे के - ' ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः ' अध्यात्मवादीओना पण त्रण प्रकार छे. (१) केटलाक नाम मात्र ( २ ) केटलाक स्थापना मात्र अने (३) केटलाक नाटकीयाओनी माफक ज्ञानशून्य. अध्यात्मनो विषय ए अगाध सागर समान छे तेनो ताग आवे तेम न होवाथी विशेष विवेचन न करतां मूळ बात पर आवश. ग्रंथविवेचन आ " जैन तत्त्वसार " ग्रंथ २१ अधिकारनो बनेलो छे अने दरेक अधिकारमां मुख्य मुख्य विषय लई तेने स्पष्टरूपे समजाववा माटे उदाहरणो पण आपवामां आव्या छे. विषयानुक्रम तपासवाथी आ ग्रंथमां केटली हकीकतोनो घटस्फोट करवामां आव्यो छे तेनो आछो ख्याल आवशे. पूरेपूरी समज माटे तो आ ग्रंथ साद्यंत वांच्ये ज छूटको आ ग्रंथनुं टीका साथेनुं प्रमाण ४१०० छे. ग्रंथनी खूबी ए छे के तेमां वादी अने प्रतिवादी एवा कल्पित पात्रो ऊभा करी एकनी शंका अने बीजानुं निरसन गोठवी पुस्तकने रसिक साथे औपदेशिक बनावबामां आव्यो छे. प्रसंगे प्रसंगे इतर दर्शनोना मंतव्यो आपी आपणी जैन आम्नायनी मान्यताने पुष्ट बनाववामां आवी छे. पहेला अधिकारमां जीव( आत्मा ) ने कर्मना स्वभावनुं वर्णन आपवामां आव्युं छे. जीवना भेदोपभेदनुं स्वरूपनिरूपण करी जीवो

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 328