Book Title: Jain Tattva Saragranth Satik
Author(s): Surchandra Gani, Manvijay Gani
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 5
________________ शुद्धम् पत्र पृष्ठ पंक्ति रस्ती अशुद्धम् त्युत्पन्न ममि धर्मः प्युत्पादादिषु दान्तेि ११५ अशुद्धम् .. रस्त्ये धर्मः प्युत्पादिषु इते दृष्टान्ते अत्राऽस्ति को गृह नोरी मुख्येयु ऽस्ति त्वमि Brrrrr.. दान्तेि अत्राऽऽस्तिको to SHAHANSASSISKA शुद्धम् ब्युत्पन्न मभि पत्तिकार्ये नाङ्गोपागा त्यादिना दान्ति पुष्पमन्त शीर्षे छायां एकस्व प्रतिकार्य नाझापाना त्या दिनां हान्ति पुष्पगन्त शीर्ष छाया एकरव ८८१५ नोररी मुख्यषु ऽस्तित्वमि १३८ ९७ १ ८ ।

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