Book Title: Jain Tattva Darshan Part 04
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 45
________________ जैन तत्व दर्शन 11. जीवदया - जयणा जीव दो प्रकार के होते है । (1) संसारी और (2) मुक्त (मोक्ष के) संसारी अर्थात् चार गति में संसरण (भ्रमण )करने वाले, कर्म से बँधे हुए, देह में कैद हुए। मुक्त अर्थात् संसार से छुटे हुए कर्म शरीर के बिना के। संसारी जीव दो प्रकार के है-(1) स्थावर और (2) त्रस। स्थावर यानी स्थिर -जो अपने आप अपनी काया को जरा भी हिला-डुला नही सकते है। उदाहरण के तौर पर पेड-पौधों के जीव। त्रस यानी उनसे विपरीत-स्वेछा से हिल-डुल सकते हैं वे| उदाहरण के तौर पर कीडी, मकोडी, मच्छर आदि। स्थावर जीवों मे सिर्फ एक ही स्पर्शन इन्द्रियोंवाला (सिर्फ चमडी) शरीर होता है। इसमें कौनसी-एक-एक इन्द्रिय बढती है। उसका क्रम समझने के लिए अपनी जीभ से उपर कान तक देखिए। बेइन्द्रिय को चमडी + जीभ (स्पर्शन+रसन), तेइन्द्रिय को इसमें (नाक-घ्राण) ज्यादा, चउरिन्द्रिय को आँख (चक्षु) अधिक, पंचेन्द्रिय को कान (श्रोत) ज्यादा। एकेन्द्रिय स्थावरजीवके पाँच प्रकार____ 1. पृथ्वीकाय-(मिट्टी, पत्थर, धातु, रत्न आदि), 2.अप्काय-(पानी, बरफ, वाष्प वगैरह) 3. तेउकाय-(अग्नि, बिजली, दिए का प्रकाश आदि), 4.वायुकाय-(हवा, पवन, पंखा, ए.सी. की ठंडी हवा आदि) 5.वनस्पतिकाय-(पेड, पान, सब्जी, फल, काई वगैरह) ये सब एकेन्द्रिय है। बेइन्द्रिय-कोडी, शंख, केंचुआ, जोंक, कमि आदि, तेइन्द्रिय-किडी, खटमल, मकोडा, दीमक, कीडा, घुन इत्यादि । चतुरिन्द्रिय-भँवरा, डाँस, मच्छर, मक्खी, तीड, बिच्छु इत्यादि। पंचेन्द्रिय-नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव। नरक-बहुत पाप कर्म इकट्ठे होने से राक्षसों के (परमाधामी के ) हाथ से सतत जहाँ कष्ट भुगतने पडते है। तिर्यंच-तीन प्रकार के जलचर, स्थलचर, नभचर। जलचर-पानी में जीनेवाले मछली, मगर, वगैरह। स्थलचर-जमीन पर फिरनेवाले-छिपकली, साँप, बाघ-सिंह वगैरह जंगली पशु और गाय कुत्ते वगैरह शहरी पशु। खेचर-आकाश में उडने वाले -तोता, कबूतर, चिडिया, मोर, चमगादड। मनुष्य-अपने जैसे। देव-बहुत पुण्यकर्म इकट्ठे हो तब हमारे उपर देवलोक में सुख सामग्री से भरपूर भव मिले वह।

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