Book Title: Jain Tark Sangraha Jain Muktavali cha
Author(s): Vijaynandansuri
Publisher: Godi Parshwanath Jain Temple Trust
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२०४
सवृत्तिक-जैनमुक्तावलीगत-ग्रन्थ-ग्रन्थकदादिविशेषनामसचिः॥ . नाम । पृष्ठाङ्कः । | नाम।
पृष्ठाङ्कः । अक्षपाद
नव्याः ६३,६७,७०,९४,९५; अङ्गारमर्दक १३३
९७१.००,१०८ अन्ये ८०,९५,१०१ नैयायिक ६६,६७,९२,९७,११३;
१०२,१२२; १२०,१२८;१२९,१३५.
१२४,१३४; १४७ नैयायिकाभिमत अपरे . १२८,१३४;
. ११० आकर
१२४ पूर्वोत्तरमोमांसिन् आचाराङ्गादि
पौराणिक कणाद
प्रज्ञप्ति कपिल
प्रभाकर कादम्बरी
प्रभाकरमत . केचित् ६७,७०८०९५,९६;
प्राचां मतम् ९९,१२१,१२३;१३४
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कौटस्थ्यमत
८४
| प्राञ्चः
प्राञ्चः
१२९
बौद्धाः
भमत
गुरुमत चार्वाक जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण १३१:१३४
भा दशवैकालिकादि ८८ मणिकार दीधितिकृत्
मीमांसक दृष्टिवाद
८८,१०७ मुरारिमत धर्मभूषण
वल्लभीयमत नध्यमत
९२ । वेदान्तिन
१२८
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