Book Title: Jain Tark Sangraha Jain Muktavali cha
Author(s): Vijaynandansuri
Publisher: Godi Parshwanath Jain Temple Trust
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२२१
लवण
शब्दः । पृष्ठम् ।। शब्दः ।
पृष्ठम् । मनःपर्याय ८६,१०३ राक्षस मनःपर्यायक ८९,१०८
१४७ मनःपर्यायज्ञान ८६,८९,१०८:१०९
१४३ मनःपर्यायज्ञानावरण १०८ लवणसमुद्र
१४३ मनोयोग १३८;१४१,१४२ लब्धानन्तज्ञानादि १३५ मनोवर्गणा
लब्धि १०३,१०४:१०७ महाप्रज्ञर्द्धि
लब्धोन्द्रिय महाशुक्र
लब्ध्य क्षर महोरग
लान्तक मारणान्तिकसमुद्घात १४१ लेश्या माहेन्द्र
लोक ८२,८३,१४३ मिताकाशावगाहन
लोकाकाश
८२,८३ मिथ्या
२०७ लोकाकाशास्तिकाय ८२ मिथ्यात्व
१३८ लोकाग्र - मिथ्यादृष्टि १०७:१३५ लोकाग्रसंस्थित
१३५ मिथ्याश्रुत
१०७ लोकान्त मोहनीय १०९:१३६,१३७ लोकोत्तर
११९ • मोहनीयक्षयोपशम
वचनयोग १४१,१४२ यक्ष
१४० वदनोदरादिरन्ध्रपूरण १३६ युगपदुपयोगवादिन्
वर्गणा
१३७,१४२ योग १४ १;१४२ वर्तना
१४६,१४७ योगनिरोध
१३६ वर्तनालक्षण योनि
वर्तनाहेतुत्व (ता) सत्नप्रभा
१३९,१४३ । वर्द्धमान
१३६
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