Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04 Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal View full book textPage 4
________________ मिथ्यातम हो महापाप है राजमल पवैया मिथ्यातम ही महा पाप है, सब पापो का बाप है। सब पापो से बडा पाप है, घोर जगत सताप है ।।टेक।। हिंसादिक पाचो पापो से, महा भयकर दुखदाता। सप्त व्यसन के पापो से भी, तीव्र पाप जग विख्याता ।। है अनादि से अग्रहीत ही, शाश्वत शिव सुख का घाता। वस्तु स्वरूप इसी के कारण, नही समझ में आ पाता ।। जिन वाणी सुनकर भी पागल, करता पर का जाप है। मिथ्यातम ही महापाप है ||१|| सज्ञी पचेन्द्रिय होता है, तो ग्रहीत अपनाता है। दो हजार सागर त्रस रहकर, फिर निगोद मे जाता है ।। पर मे पापा मान स्वय को, भूल महा दुख पाता है। किन्तु न इस मिथ्यात्व मोह के, चक्कर से बचपाता है। ऐसे महापाप से बचना, यह जिनकुल का माप है। मिथ्यातम ही महापाप है ॥२॥ इससे बढकर महा शत्र तो, नही जीव का कोई भी। इससे बढकर महा दुष्ट भी, नही जगत मे कोई भी ।। इसके नाश किए बिन होता, कभी नही व्रत कोई भी। एकदेश या पूर्ण देशवत, कभी न होता कोई भी ।। क्रिया का उपदेश आदि सब, झठा वृथा प्रलाप है। मिथ्यातम ही महापाप है ।।३।। यदि सच्चा सुख पाना है तो, तुम इसको सहार करो। तत्क्षण सम्यकदर्शन पाकर, यह भव सागर पार करो ।। वस्तु स्वरूप समझने को अब, तत्वो का अभ्यास करो। देह पृथक है, जीव पृथक है, यह निश्चय विश्वास करो ।। स्वय अनादिअनत नाथ तू, स्वय सिद्ध प्रभु आप है। मिथ्यातम ही महापाप है ॥४॥Page Navigation
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