Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 35
________________ ३४ जैन शतक (दोहा) जैन वचन अंजनवटी, आँजैं सुगुरु रागतिमिर तोहु न मिटै, बड़ो रोग लख अहो ! इस अज्ञानी जीव की आँखों में प्रवीण गुरुवर जिनेन्द्र भगवान के वचनों की अंजनगुटिका लगा रहे हैं, परन्तु फिर भी इसका रागरूपी अन्धकार नहीं मिट रहा है। लगता है, रोग बहुत बड़ा है। प्रवीन । लीन ॥ ३६ ॥ विशेष :अंजनगुटिका एक प्रकार की औषधि होती है जिसे पानी में घिसकर रतौंधादि के लिए आँख में लगाया जाता है । २०. निज अवस्था - वर्णन ( कवित्त मनहर ) जोई दिन कटै सोई आयु' मैं अवसि घटै, बूँद-बूँद बीतै जैसैं अंजुली कौ जल है । देह नित झीन होत, नैन-तेज हीन होत, जोबन मलीन होत, छीन होत बल है ॥ आवै जरा नेरी, तकै अंतक - अहेरी, आवै', १. पाठान्तर : आव । २. पाठान्तर : आय । ३. पाठान्तर : जाय । परभौ नजीक, जात नरभौ निफल है । मिलकै मिलापी जन पूँछत कुशल मेरी, ऐसी दशा माहीं मित्र! काहे की कुशल है ॥ ३७ ॥ हे मित्र ! मुझसे मेरे मिलने-जुलने वाले मेरी कुशलता के बारे में पूछते हैं; परन्तु तुम्हीं बताओ, कुशलता है कहाँ? दशा तो ऐसी हो रही है : : जिस प्रकार अंजुलि का जल जैसे-जैसे उसमें से बूँद गिरती जाती है वैसेवैसे ही समाप्त होता जाता है; उसी प्रकार जैसे-जैसे दिन कटते जा रहे हैं वैसेवैसे ही यह आयु भी निश्चित रूप से घटती जा रही है, दिनों-दिन शरीर दुर्बल होता जा रहा है, आँखों की रोशनी कम होती जा रही है, युवावस्था बिगड़ती जा रही हैं, शक्ति क्षीण होती जा रही है, वृद्धावस्था पास आती जा रही है, मृत्युरूपी शिकारी इधर देखने लग गया है, परभव पास आता जा रहा है और मनुष्यभव व्यर्थ ही बीतता जा रहा है ।

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