Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 74
________________ जैन शतक ४. जैनदर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ लिखते हैं - ___ "हिन्दी-जैन-कवियों में कविवर भूधरदासजी का स्थान विशेषरूप से उल्लेखनीय है। यदि हम प्रतिभा की दृष्टि से हिन्दी-जैन-कवियों का क्रमोल्लेख करना चाहें तो महाकवि बनारसीदासजी के बाद दूसरा स्थान भूधरदासजी का होगा।" ५. श्री प्रहलादराय गोयल, एम.ए. लिखते हैं - ___ "इसप्रकार की (रीतिकालीन) विषम परिस्थिति में समाज को सुमार्ग पर लानेवाली महान् विभूतियों में कविवर भूधर की अमृतमयी वाणी सहायक सिद्ध हुई। भूधर ने ज्ञान की ऐसी मन्दाकिनी प्रवाहित की, जो सदा ही समाज के मनुष्यों का पाप प्रक्षालन करती रहेगी। आपका एक ग्रन्थ 'जैन शतक' वास्तव में अद्वितीय है। .. इनका (भूधरदासजी का) उद्देश्य समाज को सुमार्ग पर लाना था, न केवल कविता करके अन्य कवियों की भाँति कवि समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त करना था। उन्होंने समय की साहित्यिक प्रवृत्तियों का भी उचित रूप से पालन किया अर्थात् अपनी रचनाओं को आभूषण तथा छन्दोबद्ध रीति से संचरित किया। इसी श्रृंगार की सरिता की उत्तुंग लहरों में कवि ने ज्ञान का बेड़ा बनकर सब मनुष्यों को 'काम' की धारा में बहने से बचाया। 'जैन शतक' एक छोटी-सी पुस्तक है, परन्तु महान भावों रूपी रत्नों की जन्मस्थली है। यहाँ कवि ने गागर में सागर भर दिया है। कवि का आत्मा तथा हृदय स्पष्ट रूप से प्रत्येक छन्द में दृष्टिगोचर होता है। जिससमय रीतिकालीन कवि प्रेम के झूले पर चढ़कर उद्यान की शीतल मन्द सुगन्ध बयार का रसास्वादन कर रहे थे, उससमय कवि ने मनुष्य जन्म की सार्थकता तथा कर्त्तव्य की शिक्षा देकर उपरोक्त विषय-विकारों का बहिष्कार किया। . . . . . . _ 'जैन शतक' न केवल आध्यात्मिक ज्ञानपिपासु जनों की पिपासा को शान्त करने के लिए अमृतोपम गंगाजल ही है, वरन् व्यावहारिक ज्ञान का भी कोष है। ... 'जैन शतक' अकेला ही भूधरदासजी की कीर्तिकौमुदी को विकसित करता रहेगा। यह ग्रन्थ भाव, भाषा तथा कला की दृष्टि से भी अनुपम है। रीतिकाल के लक्षणग्रन्थों के सदृश यह ग्रन्थ विभिन्न प्रकार के छन्दों का अजायबघर नहीं है। यह ग्रन्थ शान्तरस की धारा से सदा ही संतप्तजनों के हृदय को शान्त करता रहेगा।" ४. वीरवाणी (पाक्षिक), जयपुर, अक्टूबर, १९५०, पृष्ठ ३०६ ५. वीरवाणी (पाक्षिक), जयपुर, १८ मई, १९६३, पृष्ठ ३४७-३४८

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