Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 79
________________ ७८ जैन शतक परिशिष्ट -२ छन्दानुक्रमणिका १०६ अंतक सौं न छुटैअघ अंधेर.. अपने-अपने पंथ कौं... अहो इन आपने... आगम अभ्यास... आगरे मैं बालबुद्धि आदि जयवर्मा आयौ है अचानक... इस अपार जगजलधि.... इस असार संसार ए विधि ! भूल भई... कंचन कुंभन.... कंचन-भंडार भरे कब गृहवास सौं.. कर कर जिनगुन पाठ... करनों कछु न करन क्... करि गुण-अमृत पान... कहै एक सखी कहै पशु दीन काउसग्ग मुद्रा... कानन मैं बसै.. कानी कौड़ी काज कानी कौड़ी विषयसुख काहू घर पुत्र जायोः काहे को बोलत ७४ | कुगति-वहन गुनगहन-दहन... ५८ ४८ | कृमिरास कुवास... | केती वार स्वान... | कैसे करि केतकी... | कैसे कैसे बली भूप गऊपुत्र गजराज ८२ चाम-चखन सौं... चाहत है धनः... ९६ चिंता तजै न चोर... १०५ चितवत वदन छये अनादि अंज्ञान छेमनिवास छिमा.. जंगम जिय कौ... जनम-जलधि जलजान जयौ नाभिभूपाल जाको इन्द्र चाहै... जिनकैं जिन के... जीवन अलप... जीवन कितेक... जूआ खेलन. जे परनारि निहार... जैन वचन... जोई दिन कटै... जो जगवस्तु... जो धनलाभ... २२ ५५ ।

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