Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 71
________________ ७० जैन शतक (दोहा) ज्यौं बजाज ढिंग राखिकैं, पट परखें परवीन। त्यौं मत सौं मत की परख, पावै पुरुष अमीन ॥१०॥ जिसप्रकार बजाज अनेक वस्त्रों को पास-पास रखकर श्रेष्ठ वस्त्र की परीक्षा (पहचान) कर लेता है; उसीप्रकार सत्यनिष्ठ पुरुष विभिन्न मतों की भलीभाँति तुलना करके श्रेष्ठ मत की परीक्षा (पहचान) कर लेता है। (दोहा) दोय पक्ष जिनमत वि., नय निश्चय-व्यवहार। तिन विन लहै न हंस यह, शिव सरवर की पार ॥१०१॥ जिनमत में निश्चय-व्यवहार नय रूप दो पक्ष हैं, जिनके बिना यह आत्मा संसार-सागर को पार कर मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं कर सकता। (दोहा) सीझे सी. सीझहौं, तीन लोक तिहुँ काल। जिनमत को उपकार सब, मत' भ्रम करहु दयाल॥१०२॥ हे दयाल ! तीन लोक तीन काल में आज तक जितने भी सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं, और भविष्य में होंगे; वह सब एकमात्र जिनमत का ही उपकार है। इसमें शंका न करो। (दोहा) महिमा जिनवर-वचन की, नहीं वचन-बल होय। भुज-बल सौं सागर अगम, तिरे न तिरहीं कोय॥१०३ ॥ अहो! जिनेन्द्र भगवान के वचनों की महिमा वचनों से नहीं हो सकती।अपार समुद्र को भुजाओं के बल से तैरकर न कभी कोई पार कर पाया, न कर पायेगा। (दोहा) अपने-अपने पंथ को, पोखे सकल जहांन। तैसें यह मत-पोखना, मत समझो मतिवान ॥१०४॥ हे बुद्धिमान भाई ! हमारी उक्त वातों को, जिनमें अन्यमतों से जिनमत की श्रेष्ठता बताई गई है, वैसा ही मतपोषण करना मत समझना, जैसा कि दुनिया के सब लोग अपने-अपने मतों का पोषण करते हैं। १. किसी-किसी प्रति में 'मत' के स्थान पर 'जनि' लिखा मिलता है और वह भी ठीक हो सकता है। ब्रजभाषा में 'जनि' का अर्थ भी निषेध ही है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82