Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 69
________________ ६८ जैन शतक ६१. भगवत्-प्रार्थना (कवित्त मनहर) आगम-अभ्यास होहु सेवा सरवज्ञ ! तेरी, संगति सदीव मिलौ साधरमी जन की। सन्तन के गुन को बखान यह बान परौ, मेटौ टेव देव ! पर-औगुन-कथन की॥ सब ही सौं ऐन सुखदैन मुख वैन भाखौं, ___भावना त्रिकाल राखौं आतमीक धन की। जौलौं कर्म काट खोलौं मोक्ष के कपाट तौलौं, ये ही बात हू जौ प्रभु! पूजौ आस मन की॥९२॥ हे सर्वज्ञदेव ! मेरी अभिलाषा यह है कि मैं जबतक कर्मों का नाश करके मोक्ष का दरवाजा नहीं खोल लेता हूँ, तबतक मुझे सदा शास्त्रों का अभ्यास रहे, आपकी सेवा का अवसर प्राप्त रहे, साधर्मीजनों की संगति मिली रहे, सज्जनों के गुणों का बखान करना ही मेरा स्वभाव हो जावे, दूसरों के अवगुण कहने की आदत से मैं दूर रहूँ, सभी से उचित और सुखकारी वचन बोलूँ और हमेशा आत्मिक सुखरूप शाश्वत धन की ही भावना भाऊँ। हे प्रभो ! मेरे मन की यह आशा पूरी होवे। ६२. जिनधर्म-प्रशंसा (दोहा) छये अनादि अज्ञान सौं, जगजीवन के नैन। सब मत मूठी धूल की, अंजन है मत जैन॥९३॥ अनादिकालीन अज्ञान के कारण संसारी प्राणियों की आँखें बन्द पड़ी हैं। उनके लिए अन्य सब मत तो धूल की मुट्ठी के समान हैं, अज्ञानी जीवों के अज्ञान का ही पोषण करते हैं; लेकिन जैनधर्म अंजन के समान है, जो जीवों के अज्ञान का अभाव करने वाला है। (दोहा) भूल-नदी के तिरन को, और जतन कछु है न। सब मत घाट कुघाट हैं, राजघाट है जैन ॥१४॥ भ्रमरूपी नदी को तिरने के लिए जैनधर्म के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। जैनेतर सभी मत उस नदी के खोटे घाट हैं; एक जैनधर्म ही राजघाट है - सच्चा मार्ग है।

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