Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 39
________________ जैन शतक (दोहा) सुमतिहिं तजि जोबन समय, सेवहु विषय विकार। खल ' सार्दै नहिं खोइये, जनम जवाहिर सार ॥४३॥ युवावस्था में सुमति का परित्याग कर विषय-विकारों का सेवन करने वाले हे भाई ! तुम ऐसा करके निःसार खली के बदले मनुष्यभवरूपी श्रेष्ठ व अमूल्य रत्न को व्यर्थ मत खोओ। विशेष :-अनेक प्रतियों में 'सुमतिहिं तजि' के स्थान पर 'सुमती हित' - ऐसा पाठ मिलता है, पर उसका अर्थ समझ में नहीं आता। २२. कर्त्तव्य-शिक्षा (कवित्त मनहर) देव-गुरु साँचे मान साँचौ धर्म हिये आन, साँचौ ही बखान सनि साँचे पंथ आव रे। जीवन की दया पाल झूठ तजि चोरी टाल, " देख ना विरानी बाल तिसना घटाव रे ॥ अपनी बड़ाई परनिंदा मत करै भाई, यही चतुराई मद मांस कौं बचाव रे। साध खटकर्म साध-संगति में बैठ वीर, जो है धर्मसाधन को तेरे चित चाव रे॥४४॥ हे भाई! यदि तेरे हृदय में धर्मसाधन की अभिलाषा है तो तू सच्चे देव-गुरु की श्रद्धा कर ! सच्चे धर्म को हृदय में धारण कर ! सच्चे शास्त्र सुन ! सच्चे मार्ग पर चल ! जीवों की दया पाल ! झूठ का त्याग कर ! चोरी का त्याग कर! पराई स्त्री को बुरी नजर से मत देख ! तृष्णा कम कर ! अपनी बड़ाई और दूसरों की निन्दा मत कर ! और इसी में तेरी चतुराई है कि तू मद्य और मांस से बचकर रह ! देवपूजा आदि षट् आवश्यक कर्मों का पालन कर ! सज्जनों की संगति में बैठा कर! _ विशेष :-१. कवि की काव्यकुशलता देखिए कि उसने 'जीवन की ... घटाव रे' - इस एक ही पंक्ति में हिंसादि पाँचों पापों के त्याग की प्रेरणा दे दी है। २. षट्आवश्यक कर्मों के नाम एवं स्वरूप के सम्बन्ध में इसी जैन शतक' का ४८वाँ छन्द विशेष रूप से देखने-योग्य है। १. पाठान्तर : पुरान।

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