Book Title: Jain Shatak
Author(s): Bhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 42
________________ जैन शतक २५. सातों वार गर्भित षट्कर्मोपदेश (छप्पय) अघ-अंधेर-आदित्य नित्य स्वाध्याय करिग्ज। सोमोपम संसारतापहर तप कर लिज्ज। जिनवरपूजा नियम करहु नित मंगलदायनि। बुध संजम आदरहु धरहु चित श्रीगुरु-पांयनि॥ निजवित समान अभिमान विन, सुकर सुपत्तहिं दान कर। यौं सनि सुधर्म षटकर्म भनि, नरभौ-लाही लेहु नर ॥४८॥ प्रतिदिन, पापरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए जो सूर्य के समान है - ऐसा स्वाध्याय कीजिये, संसाररूपी ताप को हरने के लिये जो चन्द्रमा के समान है - ऐसा तप कीजिये, जिनेन्द्र देव की पूजा कीजिये, विवेक सहित संयम का आदर कीजिये, श्रीगुरु-चरणों की उपासना कीजिये और अपनी शक्ति के अनुसार अभिमान-रहित होकर सुपात्रों को अपने शुभ हाथों से दान दीजिये। इस प्रकार हे भाई ! षट् आवश्यक कार्यों में संलग्न होकर मनुष्य भव का लाभ लीजिये। विशेष :-इस छन्द में रविवार से शनिवार तक सात वारों के नाम का क्रमशः संकेत किया गया है। इससे काव्य में चमत्कार तो उत्पन्न हुआ ही है, भाव भी उच्च हुये हैं । तात्पर्य यह निकला कि देवपूजादि षडावश्यक कर्म केवल रविवार या केवल सोमवार आदि को ही करने योग्य नहीं हैं, अपितु सातों वारों को प्रतिदिन अवश्य करने योग्य हैं। (दोहा) ये ही छह विधि कर्म भज, सात विसन तज वीर। इस ही पैंडे पहुँचिहै, कम क्रम भवजल-तीर ॥४९॥ हे भाई ! (छन्द-संख्या ४८ में कहे गये) षट् आवश्यक कर्मों का पालन करो और (छन्द-संख्या ५० में बताये जानेवाले) सप्त व्यसनों का त्याग करो। तुम इसी तरह क्रम-क्रम से संसार-सागर का किनारा प्राप्त कर लोगे।

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