Book Title: Jain_Satyaprakash 1943 08
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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३४०] શ્રી જેન સત્ય પ્રકાશ
[१८ यह 'आत्मनिवेदनम् ' पं. के. भुजबली शास्त्रीकी स्वतंत्र रचना नहीं है, किन्तु एक प्राचीन श्वेताम्बरीय काव्यका अनुकरण मात्र ही है, जिसका नाम 'रत्नाकरपंचविंशति' है और जिसे १४ वीं शताब्दिमें श्रीमान् रत्नाकरसूरिजीने बनाया है।
आपकी जानकारीके लिये उसकी एक प्रति बुकपोस्टसे भेजी जाती है। इससे आप देख सकेंगे कि 'आत्मनिवेदनम् ' का 'रत्नाकरपंचविंशति' के साथ छंद, शब्द, भाषा, और संकलनामें कितना साम्य है ।
इस प्रकार अन्य ग्रन्थकारका ऋण न स्वीकार करके ऐसी रचना अपने नाम चडा लेनेसे धर्म या साहित्यकी सच्ची सेवा नहीं हो सकती । इससे तो-श्वेतांबर ग्रंथोंको सामने रखकर कई दिगंबर ग्रन्थकी रचना की गई है-इस दोषारोपणका समर्थन मात्र ही होता है।
आशा है इस विषयमें आप अपना अभिप्राय आपके पत्रके आगामी अंकमें अवश्य प्रकाशित करेंगे । और साथका पत्र पं. भुजबलीजीको भेजदेगें। (डाकव्ययके लिये ०-१-६ के टीकट भेजे हैं) हमारे योग्य सेवा लिखें । पत्रोत्तर अवश्य दें।
भवदीय
रतिलाल दीपचंद देसाई, व्यवस्थापक ५. 3. मुwwal ने मे ५३.
अमदावाद, ता. १२-४-४३ श्रीमान् पंडित के. भुजबली शास्त्रीकी सेवामें, आरा महाशयजी,
'जैन गजट' (अंग्रेजी ) मासिकके पुस्तक ४०, अंक ३, मार्च १९४३ के अंकमें आपकी 'आत्मनिवेदनम् ' शीर्षक एक कविता प्रकट हुइ है ।
यह कविता आपकी स्वतंत्र रचना नहीं है, किन्तु चौदहवीं शताब्दिमें पूज्य आचार्य रत्नाकरसूरिजीरचित 'रत्नाकरपंचविंशति' नामक श्वेतांबरीय काव्यकी अनुकृति मात्र ही है यह आप जानते हैं।
इस प्रकार परायी कृतिमें अल्प-अधिक हेरफेर करके उसे अपने नाम चडालेना उचित नहीं है । जिस कृतिको देखकर आपको नयी कृति बनानेकी प्रेरणा मिली उस कृतिका ऋण-स्वीकार करनेमें आपको कोई हानि न होती।
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