Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 16
________________ ४] जैन साहित्य संशोधक खंड २ भी शब्दशुद्धिको तत्त्वज्ञानका द्वार मान कर उसका अन्तिम ध्येय परम श्रेय ही माना है । विशेष क्या ? कामशास्त्र तकका भी आखिरी उद्देश मोक्ष है । इस प्रकार भारतवर्षीय साहित्यका कोई भी स्रोत देखिये उसकी गति समुद्र जैसे अपरिमेय एक चतुर्थ पुरुषार्थकी ओर ही होगी। . ३ लोकाच-आध्यात्मिक विषयकी चर्चावाला और खासकर योगविषयक कोई भी ग्रन्थ किसीने भी लिखा कि लोगोंने उसे अपनाया । कंगाल और दीन हीन अवस्थामें भी भारतवर्षीय लोगोंकी उक्त आभसाच यह सूचित करती है कि योगका सम्बन्ध उनके देश व उनकी जातिमें पहलेसे ही चला आता है। इसी कारणसे भारतवर्षकी सभ्यता अरण्यमें उत्पन्न हुई कही जाती है 1। इस पैत्रिक स्वभावके कारण जब कभी भारतीय लोग तर्थियात्रा या सफरके लिये पहाडों, जंगलों और अन्य तीर्थस्थानों में जाते हैं तब वे डेरा तंबू डालनेसे पहले ही योगियोंको, उनके मठोंको और उनके चिन्ह तकको भी ढूंढा करते हैं । योगकी श्रद्धाका उद्रेक यहां तक देखा जाता है कि किसी नंगे बावेको गांजेकी चिलम फूंकते या जटा बढाते देखा कि उसके मुंहके धुंएमें या उसकी जटा व भस्मलेपमें योगका गन्ध आने लगता है । भारतवर्षके पहाड, जंगल और तीर्थस्थान भी बिलकुल योगिशून्य मिलना दुःसंभव है । ऐसी स्थिति अन्य देश और अन्य जातिमें दुर्लभ है। इससे यह अनुमान करना सहज है कि योगको आविष्कृत करनेका तथा पराकाष्ठा तक पहुंचानेका श्रेय बहुधा भारतवर्षको और आर्यजातिको ही है । इस बातकी पुष्टि मेक्षमूलर जैसे विदेशीय और भिन्न संस्कारी विद्वान्के कथनसे भी अच्छी तरह होती है।2 आर्यसंस्कृतिकी जड और आर्यजातिका लक्षण---ऊपरके कथनसे आर्यसंस्कृतिका मूल आधार क्या है, यह स्पष्ट मालूम हो जाता है । शाश्वत जीवनकी उपादेयता ही आर्यसंस्कृतिकी भित्ति है । इसी पर आर्यसंस्कृ. तिके चित्रोंका चित्रण किया गया है । वर्णविभाग जैसा सामाजिक संगठन और आश्रमव्यवस्था जैसा वैयक्तिक जीवनविभाग उस चित्रणका अनुपम उदाहरण है । विद्या, रक्षण, विनिमय और सेवा ये चार जो वर्णविभागके उद्देश्य हैं, उनके प्रवाह गार्हस्थ्य जीवनरूप मैदानमें अलग अलग बह कर भी वानप्रस्थके मुहानेमें मिलकर अंतमें संन्यासाश्रमके अपरिमेय समुद्रमें एकरूप हो जाते हैं | सारांश यह है कि सामाजिक, राजनै क, धार्मिक आदि सभी संस्कृतियोंका निर्माण, स्थूलजीवनकी परिणामविरसता और आध्यात्मिक-जीवनकी परिणामसुन्दरता ऊपर ही किया गया है। अत एव जो विदेशीय विद्वान् आर्यजातिका लक्षण स्थूलशरीर, उसके डीलडोल, व्यापार-व्यवसाय, भाषा, आदिमें देखते हैं वे एकदेशीय मात्र हैं। खेतीबारी, जहाजखेना, पशुओंको चराना आदि जो जो अर्थ आर्यशन्दसे निकाले गये हैं वे आर्यजातिके असाधारण लक्षण नहीं है। आर्यजातिका असाधारण लक्षण तो परलोकमात्रकी कल्पना भी नहीं है, क्यों कि उसकी दृष्टिमै वह लोक भी त्याज्य है । उसका सच्चा और अन्तरंग लक्षण स्थूल जगत्के उसपार वर्तमान परमात्मतत्त्वकी एकाग्रबुद्धिसे उपासना करना यही है। इस सर्वव्यापक उद्देश्यके कारण आर्यजाति अपनेको अन्य सब जातियोंसे श्रेष्ठ समझती आई है। १ द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रह्माण निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।। व्याकरणात्पदसिद्धः पदसिद्धरनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात्परं श्रेयः ॥ श्रीहेमशब्दानुशासनम् अ.१ पा. १सू. २ लघुन्यास, २" स्थाविरे धर्म मोक्षं च" कामसूत्र अ. २ पृ. ११ Bombay Edition. 1 देखो कविवर टागोर कृत " साधना" पृष्ठ ४. " Thus in India it was in the forests that our civilization had its birth......ete" 2 This concentrtion of thought (एकाग्रता) or one-pointedness as the Hindus called it, Is something to us almost unknown. इत्यादि देखो. पृ. २३-वोल्युम १-सेक्रेड बुक्स ओफ धि ईस्ट, मेक्षमूलर-प्रस्तावना. Aho! Shrutgyanam

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