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अंक १]
योगद नि
योगका अस्तित्व सभी देश और सभी जातियोंमें रहा है । तथापि कोइ भी विचारशील मनुष्य इस बातका इनकार नहीं कर सकता है कि योगके आविष्कारका या योगको पराकाष्ठा तक पहुंचानेका श्रेय भारतवर्ष और आर्यजातिको ही है । इसके सबूतमें मुख्यतया तीन बातें पेश की जा सकती हैं । १ योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि आध्यात्मिक महापुरुषोंकी बहुलता; २ साहित्यके आदर्शकी एकरूपता; और ३ लोकरुचि ।
१. योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि आध्यात्मिक महापुरुषोंकी संख्या भारतवर्ष में पहिलेसे आज तक इतनी बड़ी रही है कि उसके सामने अन्य सब देश और जातियों के आध्यात्मिक व्यक्तियोंकी कुल संख्या इतनी अल्प जान पडती है जितनी कि गंगाके सामने एक छोटीसी नदी ।
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२. साहित्यके आदर्शकी एकरूपता - तत्त्वज्ञान, आचार, इतिहास, काव्य, नाटक आदि साहित्यका कोई भी भाग लीजिये उसका अन्तिम आदर्श बहुधा मोक्ष ही होगा । प्राकृतिक दृश्य और कर्मकाण्डके वर्ण - नने वेदका बहुत बडा भाग रोका है सही, पर इसमें संदेह नहीं कि वह वर्णन वेदका शरीर मात्र है; उसकी आत्मा कुछ ओर ही है-और वह है परमात्मचिंतन या आध्यात्मिक भावोंका आविष्करण । उपनिषदोंका प्रासाद तो ब्रह्मचिन्तनकी बुनियाद पर ही खडा है । प्रमाणविषयक, प्रमेयविषयक कोई भी तत्त्वज्ञान संबन्धी सूत्रग्रन्थ हो ; उसमें भी तत्वज्ञानके साध्यरूपसे मोक्षका ही वर्णन मिलेगा 1 | आचारविषयक सूत्र स्मृति आदि सभी ग्रन्थोंमें आचारपालनका मुख्य उद्देश मोक्ष ही माना गया 2 है । रामायण, महाभारत आदिके मुख्य पात्रोंकी महिमा सिर्फ इस लिये नहीं कि वे एक बडे राज्य के स्वामी थे, पर वह इस लिये है कि अंतमें वे संन्यास या तपस्याके द्वारा मोक्षके अनुष्ठान में ही लग जाते हैं । रामचन्द्रजी प्रथम ही अवस्थामें वशिष्ठसे योग और मोक्षकी शिक्षा पा लेते हैं। युधिष्ठिर भी युद्ध रस लेकर बाण शय्यापर सोये हुए भीष्मपितामह से शान्तिका ही पाठ पढते 4 हैं । गीता तो रणांगण में भी मोक्षके एकतम साधन योगका ही उपदेश देती है । कालिदास जैसे शृंगार प्रिय कहलानेवाले कवि भी अपने मुख्य पात्रोंकी महत्ता मोक्षकी और झुकनेमें ही देखते हैं । जैन आगम और बौद्ध पिटक तो निवृत्तिप्रधान होनेसे मुख्यतया मोक्षके सिवाय अन्य विषयों का वर्णन करनेमें बहुत ही संकुचाते हैं । शब्दशास्त्र में
---1 वैशेषिकदर्शन, अ० १ सू० ४ धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां ' साधर्म्यवैधम्यभ्यिां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् । - न्यायदर्शन अ० १ सू० १ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवर कीनर्णयवाद जल्पवितण्डाहेत्वाभासहल जातिनिग्रह स्थानानां तत्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ सांख्यदर्शन, अ. १ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥ - वेदान्तदर्शन अ०४, पा० ४, सू० २२ अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ॥ - जैनदर्शन तच्चार्थ अ० १ सू० १ सम्यग्दर्शनशान चारित्राणि मोक्षमार्गः || 2 याज्ञवल्क्यस्मृति अ. ३ यतिधर्मानिरूपणम् ; मनुस्मृति अ. १२ श्लोक ८३. 3 देखो योगवाशिष्ठ 4 देखो महाभारत - शान्तिपर्व 5 कुमारसंभव - सर्ग ३ तथा ५ तपस्या वर्णनम् शाकुन्तल नाटक अंक ४ कण्वोक्ति.
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Aho ! Shrutgyanam
भूत्वा चिराय चतुरन्तमही सपत्नी, दौष्यन्तिमप्रतिरथं तनयं निवेश्य ।
भर्त्रा तदर्पितकुटुम्बभरेण सार्थ, शान्ते करण्यास पदं पुनराश्रमेऽस्मिन् ॥
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानाम् यौवने विषयैषिणाम् । वार्द्धके मुनिवृत्तीनाम् योगेनान्ते तनुत्यजाम् ||८|| सर्ग १ अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे नृपतिककुदं दत्त्वा यूने सितातपवारणम् ।
मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये, गलितवयसामिचाणामिदं हि कुलतम् ॥ ७० ॥ रघुवंश, ३