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जैन-रनसार क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति, पूयमाने । ई. जिनेश्वरे ॥१८॥
सर्व मङ्गल माङ्गल्यं, सर्व कल्याणकारणम् । प्रघानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥१९॥
बृहत् अतिचार नाणंम्मि दंसणम्मि अ, चरणम्मि तवम्मि तह य विरयम्मि । आयरणं आयारो, इअ एसो पंचही भणिओ ॥१॥ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार । इन पांच आचारों में से कोई अतिचार पक्खी दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया कर मिच्छामि दुक्कडं।
तत्र ज्ञानाचार के आठ अतिचार-"काले विणए बहुमाणे, उवहाणे में तह य निण्हवणे । बंजण अत्थतदुभए, अट्ठविहो नाणमायारो ॥२॥ ज्ञान
नियमित समय में पढ़ा नहीं । अकाल समय में पढ़ा । विनय रहित, बहुमान रहित, योग उपधान रहित पढ़ा।ज्ञान जिससे पढ़ा उससे अतिरिक्त को गुरु माना या कहा । देववन्दन, गुरुवन्दन करते हुए तथा प्रतिक्रमण, सज्झाय पढ़ते या गुणते अशुद्ध अक्षर कहा । कानामात्रा न्यूनाधिक कही
सूत्र असत्य कहा, अर्थ अशुद्ध किया अथवा सूत्र और अर्थ दोनों असत्य o कहे । पढ़ कर भूला, असञ्झाय के समय में श्रविरावली, प्रतिक्रमण, उप
देशमाला आदि सिद्धान्त पढ़ा । अपवित्र स्थान में पढ़ा या बिना साफ किये घृणित ( खराब ) भूमि पर रखा । ज्ञान के उपकरण पाटी, तख्ती, पोथी, ठवणी, कवली, माला, पुस्तक रखने की रील, कागज, कलम, दवात आदिके पैर लगा, थूक लगा अथवा थूकसे अक्षर मिटाया। ज्ञानके
“ इसको प्रतिक्रमण में सम्मिलित हुए न्यूनाधिक ५०० वर्ष हुए हैं। परम्परानुगत हरएक श्रावक श्राविका, गुरु यति या साधुओं के मुख से ही शान्ति श्रवण किया करते थे। उदयपुर : * में एक वृद्धावस्था के यति कई वार श्रावक श्राविकाओं को प्रतिक्रमण मे सुनाते-सुनाते नंग हो * गये अतः उन्होंने प्रतिक्रमण के अन्त में नित्य बोलने का नियम कर दिया। उस समय से . अद्यावधि प्रतिक्रमण में पढ़ी या सुनी जाती है।
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