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[अट्ठाईस]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ पूर्व किसी भी शिलालेख या ग्रन्थ में उसका उल्लेख नहीं मिलता। इससे सिद्ध होता है कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति उक्त ताम्रपत्रलेख के काल से अधिक से अधिक पचास वर्ष पूर्व अर्थात् ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुई थी। डॉ० सागरमल जी ने भी यही माना है। दूसरी ओर आचार्य कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक था। इसका सप्रमाण प्रतिपादन कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में किया गया है। अतः जिस यापनीयसंघ का उदय कुन्दकुन्द के अस्तित्वकाल से पाँच सौ वर्ष बाद हुआ, उसमें उनका दीक्षित होना सर्वथा असंभव है।
६. इसी प्रकार भट्टारकसम्प्रदाय का उदय ईसा की १२वीं शताब्दी में हुआ था। इसकी सप्रमाण सिद्धि अष्टम अध्याय में की गयी है। अतः इससे ११०० वर्ष पूर्व हुए कुन्दकुन्द का भट्टारकसम्प्रदाय में भी दीक्षित होना असंभव है।
७. ईसा की पाँचवीं शताब्दी में उत्पन्न हुए यापनीयसंघ से पूर्व भारत में ऐसा कोई भी जैनसम्प्रदाय नहीं था जो अचेल और सचेल दोनों लिंगों से मुक्ति मानता हो। पाँचवीं शताब्दी ई० तथा उससे पूर्व के किसी भी अभिलेख या ग्रन्थ में ऐसे सम्प्रदाय का उल्लेख नहीं मिलता। इसका सप्रमाण प्रतिपादन द्वितीय अध्याय में किया गया है। अतः डॉ० सागरमल जी की यह मान्यता अप्रमाणिक सिद्ध हो जाती है कि उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसम्प्रदाय से श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का जन्म हुआ था और तत्त्वार्थसूत्र एवं सन्मतिसूत्र की रचना इसी सम्प्रदाय में हुई थी।
तृतीय अध्याय-इस अध्याय में वे प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत को मान्यता दी गयी है। आचारांग और स्थानांग में अचेलत्व की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। परीषहजय एवं तप के लिए पूर्ण निर्वस्त्रता की अनुशंसा की गयी है। द्रव्य-परिग्रह को भी परिग्रह स्वीकार किया गया है। सभी तीर्थंकरों के दिगम्बरमुद्रा से ही मुक्त होने का कथन है। आदि
और अन्तिम तीर्थंकरों द्वारा अचेलकधर्म का ही उपेदश दिये जाने का वर्णन है। और आचारांग में 'अचेल' का अर्थ 'अल्पचेल' नहीं किया गया है, सर्वथा अचेल ही किया गया है। इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि दिगम्बरमत आचारांग और स्थानांग के रचनाकाल से भी प्राचीन है।
चतुर्थ अध्याय-वैदिकसाहित्य, संस्कृतसाहित्य और बौद्धसाहित्य में भी दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा की गई है। इसके प्रमाण चतुर्थ अध्याय में दिये गये हैं। ईसापूर्व १५वीं शती के ऋग्वेद में वातरशन (वायुरूपी वस्त्र धारण करनेवाले) मुनियों का
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