Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ अन्तस्तत्त्व [नौ] 000 १०५ ४.४. दक्षिणा-चढ़ावा-भेंट-शुल्क आदि से अर्थोपार्जन ४५. राजोचित वैभव एवं प्रभुत्व तथा ऐश्वर्यमय निरंकुश जीवनशैली ४.६. 'जैनाचार्य-परम्परा-महिमा' ग्रन्थ से समर्थन 0 विकट परिस्थितियों में भट्टारकपरम्परा का प्रादुर्भाव । भट्टारकपरम्परा के प्रथम आचार्य का पट्टाभिषेक - भट्टारकपीठों की सर्वप्रथम स्थापना । 0 श्रवणबेलगोलतीर्थ तथा वहाँ मुख्यपीठ की स्थापना - आचार्य माघनन्दी का समय ४.७. उपर्युक्त कथा की समीक्षा १०१ मन्दिरमठवासी-मुनिपरम्परा भट्टारक-परम्परा नहीं १०१ ५.१. आचार्य हस्तीमल जी के मत का निरसन १०२ ५.२. 'भट्टारक' संज्ञा का प्रयोग आकस्मिक १०४ ५.३. आरंभ में भट्टारक दिगम्बराचार्यों के शिष्य ६. कुन्दकुन्द अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी भट्टारकसम्प्रदाय से पूर्ववर्ती। पञ्चम प्रकरण-नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती यापनीय नहीं, दिगम्बर थे षष्ठ प्रकरण-भट्टारक-पदस्थापनविधि आगमोक्त नहीं १. भट्टारक-पदस्थापना-विधि का मूलपाठ ११६ २. आचार्य-पदस्थापना-विधि का मूलपाठ १२१ '३. उपाध्याय-पददान-विधि का मूलपाठ सप्तम प्रकरण-भट्टारकपरम्परा के प्रति विद्रोह : तेरापन्थ का उदय १२४ १. जिनशासन का मिथ्यात्वीकरण १२४ २. विद्रोह एवं तेरापन्थ का उदय १३३ २.१. पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का मत १३३ २.२. पं० नाथूराम जी प्रेमी का मत १३४ ३. बुन्देलखण्ड में भट्टारकशासन की अन्तिम सदी १८वीं ई० १३६ ४. तेरापन्थ के उदय की प्रतिक्रिया १३७ ५. भट्टारकों के स्वरूप में कालकृत परिवर्तन १४७ १०९ १११ ११५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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