Book Title: Jain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ [आठ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ ४. इण्डियन ऐण्टिक्वेरी-पट्टावली के अनुसार कुन्दकुन्द का समय २९ तृतीय प्रकरण-कुन्दकुन्द को भट्टारक असिद्ध करनेवाले पट्टावलीगत तथ्य १. कुन्दकुन्द 'नन्दी' आदि संघों की उत्पत्ति से पूर्ववर्ती २. नन्दिसंघीय पट्टावली केवल भट्टारक-परम्परा की पट्टावली नहीं ३. मूलसंघीय मुनिवर्ग का ही 'नन्दी' आदि संघों में विभाजन । ४. इण्डियन ऐण्टिक्वेरी-पट्टावली कुन्दकुन्दान्वय की पट्टावली ५. कुन्दकुन्द भट्टारकप्रथा के बीजारोपण से पूर्ववर्ती ६. कुन्दकुन्द को ५वीं शती ई० में मानने पर सभी पट्टधरों का अस्तित्व मिथ्या ७. माघनन्दी आदि का पट्टधर होना अन्य स्रोतों से प्रमाणित नहीं चतुर्थ प्रकरण-भट्टारकसम्प्रदाय का असाधारण लिंग और प्रवृत्तियाँ १. 'भट्टारक' शब्द तीन अर्थों का सूचक २. दिगम्बरपरम्परा में नवोदित अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी मिथ्या धर्मगुरुओं की परम्परा ही भट्टारक-परम्परा ३. पासत्थादि मुनियों के वस्त्रधारण से १२वीं शती ई० में भट्टारकपरम्परा का उदय ३.१. पासत्थ (पार्श्वस्थ) ३.२. कुसील (कुशील) ३.३. संसत्त (संसक्त) ३.४. ओसण्ण (अवसन्न) ३.५. जहाछंद (यथाछन्द या मृगचरित्र) ३.६ सम्प्रदायविशेष के व्यक्ति के अर्थ में 'भट्टारक' शब्द के प्रचलन की कथा ३.७ 'भट्टारक' शब्द का अर्थापकर्ष ईसा की १२वीं सदी में ४. अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी-धर्मगुरु भट्टारकों के असाधारणधर्म ४.१. भट्टारक-दीक्षाविधि द्वारा भट्टारकपद पर प्रतिष्ठापन ४.२. अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग-ग्रहण ४.३ धर्मगुरु एवं पण्डिताचार्य के अधिकारों का आरोपण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 900