Book Title: Jain Dharm me Tirthankar Ek Vivechan Author(s): Rameshchandra Gupta Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 6
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - ५. निर्वाणकल्याणक - तीर्थंकर के परिनिर्वाण प्राप्त उक्त तीन अतिशयों के चौंतीस उत्तरभेद किए गए हैं। होने पर भी देवों द्वारा उनका दाहसंस्कार कर परिनिर्वाणोत्सव श्वेताम्बर परम्परा में सहज अतिशय के चार, कर्मक्षयज अतिशय मनाया जाता है।२८ के ग्यारह और देवकृत अतिशय के उन्नीस भेद स्वीकार किए गए हैं। इस प्रकार जैनपरम्परा में तीर्थंकरों के उपर्यक्त पंचकल्याणक माने गए हैं। (क) सहज अतिशय (ब) अतिशय १. सुन्दर रूप, सुगन्धित, नीरोग, पसीनारहित एवं मलरहित शरीर। सामान्यतया जैनाचार्यों ने तीर्थंकरों के चार अतिशयों का २. कमल के समान सुगन्धित श्वासोछ्वास। उल्लेख किया है -३० ३. गौ के दग्ध के समान स्वच्छ, दुर्गन्धरहित माँस और रुधिर। १. ज्ञानातिशय ४. चर्मचक्षुओं से आहार और नीहार का न दिखना। २. वचनातिशय ३. अपायापगमातिशय (ख) कर्मक्षयज अतिशय ४. पूजातिशय १. योजन मात्र समवसरण में क्रोडाक्रोडी मनष्य. देव और १. ज्ञानातिशय - केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञता की तिर्यञ्चों का समा जाना। उपलब्धि ही तीर्थंकर का ज्ञानातिशय माना गया है। दूसरे शब्दों २. एक योजन तक फैलने वाली भगवान की अर्धमागधी में तीर्थंकर सर्वज्ञ होता है, वह सभी द्रव्यों की भूतकालिक, वाणी को मनुष्य, तिर्यञ्च और देवताओं द्वारा अपनी-अपनी वर्तमानकालिक तथा भावी पर्यायों का ज्ञाता होता है। दूसरे भाषा में समझ लेना। शब्दों में वह त्रिकालज्ञ होता है। तीर्थंकर का अनन्तज्ञान से ३. सर्यप्रभा से भी तेज सिर के पीछे प्रभामंडल का होना। युक्त होना ही ज्ञानातिशय है। ४. सौ योजन तक रोग का न रहना। २. वचनातिशय - अबाधित और अखण्डनीय सिद्धान्त ५. वैर का न रहना। का प्रतिपादन तीर्थंकर का वचनातिशय कहा गया है। प्रकारान्तर ६. ईति अर्थात धान्य आदि को नाश करने वाले चहों आदि । से वचनातिशय के ३५ उपविभाग किए गए हैं। का अभाव। ३. अपायापगमातिशय - समस्त मलों एवं दोषों से ७. महामारी आदि का न होना। रहित होना अपायापगमातिशय है। तीर्थंकर को रागद्वेषादि १८ ८. अतिवष्टि न होना। दोषों से रहित माना गया है। ९. अनावृष्टि न होना। ४. पूजातिशय - देव और मनुष्यों द्वारा पूजित होना १०. दर्भिक्ष न पडना। तीर्थंकर का पूजातिशय है। जैनपरम्परा के अनुसार तीर्थंकर को ११. स्वचक्र और परचक्र का भय न होना। देवों एवं इन्द्रों द्वारा पूजनीय माना गया है। तीर्थंकरों के अतिशयों को जैनाचार्यों ने निम्न तीन भागों (ग) देवकृत अतिशय में भी विभाजित किया है - १. आकाश में धर्मचक्र का होना। क. सहज अतिशय २. आकाश में चमरों का होना। ख. कर्मक्षयज अतिशय ३. आकाश में पादपीठ सहित उज्ज्वल सिंहासन। ग. देवकृत अतिशय ४. आकाश में तीन छत्र। doodniromidnidmoonirdoirdidrodroid-ord-ord- २५Horridhiridvideodoodx6A6d6d6dwordwodmordrd Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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