Book Title: Jain Dharm me Tirthankar Ek Vivechan
Author(s): Rameshchandra Gupta
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 16
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म उपरोक्त चौबीस तीर्थंकर ऐरावत क्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणी ऋषभदेव को है। इस प्रकार इन्हें भारतीय सभ्यता और संस्कृति काल में धर्मतीर्थ की देशना करने वाले होंगे। का आदि पुरुष माना जाता है। यह भी मान्यता है कि इन्होंने जिस प्रकार बौद्धों में सुखावतीव्यूह में सदैव बुद्धों की उपस्थिति सामाजिक जीवन में सर्वप्रथम योगलिक परम्परा को समाप्त मानी गई है उसी प्रकार जैनों में महाविदेह क्षेत्र में सदैव बीस तीर्थंकरों की उपस्थिति मानी है। यद्यपि उनमें से प्रत्येक तीर्थकर अनुसार इनके शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष और आय ८४ लाख अपनी आय मर्यादा पर्ण होने पर सिद्ध हो जाता है अर्थात निर्वाण पूर्व वर्ष मानी गई है। ये ८३ लाख पूर्व वर्ष सांसारिक अवस्था में को प्राप्त कर लेता है किन्तु जिस समय वह निर्वाण प्राप्त करता है, रहे और इन्होंने १/२ लाख पूर्व वर्ष तक संयम का पालन किया। उस समय उसी नाम का दूसरा तीर्थंकर कैवल्य प्राप्तकर तीर्थंकर अपने जीवन की संध्यावेला में इन्होंने चार हजार लोगों के साथ पद प्राप्त कर लेता है, इस प्रकार क्रम सदा चलता रहता है। संन्यास लिया। इन्हें एक वर्ष के कठोर तप की साधना के महाविदेह क्षेत्र के बीस तीर्थंकर निम्नलिखित हैं-४७ पश्चात् पुरिमताल उद्यान में बोधि प्राप्त हुई थी। जैनों की ऐसी मान्यता है कि ऋषभदेव के साथ संन्यास धर्म को अंगीकार १. सीमन्धर २. युगन्धर ३. बाहु ४. सुबाहु ५. संजात ६. करने वाले अधिकांश व्यक्ति उनके समान कठोर आचरण का स्वयंप्रभ७. ऋषभानन ८. अनन्तवीर्य ९.सूरिप्रभ १०.विशालप्रभ पालन न कर पाए और परिणामस्वरूप उन्होंने अपनी-अपनी ११. वज्रधर १२. चन्द्रानन १३. चन्द्रबाहु १४. भुजंगम १५. सुविधाओं के अनुसार विभिन्न श्रमण-परम्पराओं को जन्म दिया। ईश्वर १६. नेमिप्रभु १७. वीरसेन १८. महाभद्र १९. देवयश २०. उनके पौत्र मारीचि द्वारा त्रिदंडी संन्यासियों की परम्परा प्रारंभ अजितवीर्य। हुई। जैनों की मान्यता है कि ऋषभदेव के संघ में ८४ गणों में जैनों की कल्पना है कि समस्त मनुष्यलोक (अढाई द्वीप) विभक्त ८४ गणधरों के अधीन ८४ हजार श्रमण थे, ब्राह्मी के विभिन्न क्षेत्रों में एक साथ अधिकतम १७० और न्यूनतम प्रमुख तीन लाख आर्यिकाएँ थीं। तीन लाख पचास हजार श्रावक २० तीर्थंकर सदैव वर्तमान रहते हैं। इन न्यूनतम और अधिकतम और पाँच लाख चौवन हजार श्राविकाएँ थीं। संख्या का अतिक्रमण नहीं होगा, फिर भी एक तीर्थंकर का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में ऋषभदेव के १२ पूर्व भवों दूसरे तीर्थंकर से कभी मिलाप नहीं होता। का उल्लेख है। इसके साथ ही साथ उसमें उनके जन्म-महोत्सव, १. ऋषभदेव नामकरण, रूप-यौवन, विवाह, गृहस्थजीवन, सन्तानोत्पनि, राज्याभिषेक, कलाओं की शिक्षा, वैराग्य, गृहत्याग और दीक्षा, ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर साधनाकाल के उपसर्ग, इक्षुरस से पारण, केवलज्ञान, समवसरण, माने जाते हैं।४९ इनके पिता नाभि और इनकी माता मरुदेवी संघस्थापना और उपदेश आदि का विस्तार से वर्णन है। थीं। ये इक्ष्वाकु कुल के काश्यप गोत्र में उत्पन्न हुए थे। इनका जन्मस्थान कोशल जनपद के अयोध्या नगर में माना जाता है। ऋषभदेव का उल्लेख अन्य परम्पराओं में भी मिलता है। इनकी दो पत्नियाँ थीं - सुनन्दा और सुमंगला। भरत, बाहुबलि वैदिक परम्परा में वेदों से लेकर पुराणों तक इनके नाम का आदि उनके १०० पुत्र और ब्राह्मी-सुन्दरी दो पत्रियाँ थीं५१) उल्लेख पाया जाता है। ऋग्वेद में अनेक रूपों में इनकी स्तति की गई है। यद्यपि आज यह कहना कठिन है कि ऋग्वेद में ऋषभदेव उस काल में उत्पन्न हुए थे, जब मनुष्य प्राकृतिक वर्णित ऋषभदेव वही हैं, जो जैनों के प्रथम तीर्थंकर हैं, क्योंकि जीवन से निकलकर ग्रामीण एवं नगरीय जीवन में प्रवेश कर इनके पक्ष एवं विपक्ष में विद्वानों ने अपने तर्क दिए हैं। तांड्य रहा था। माना जाता है कि ऋषभदेव ने पुरुष को ७२ और ब्राह्मण और शतपथ ब्राह्मण में नाभिपत्र ऋषभ और ऋषभ के स्त्रियों को ६४ कलाओं की शिक्षा दी थी, उन्होंने अपनी पुत्री पत्र भारत का उल्लेख है।५३ उत्तरकालीन हिन्द-परम्परा के ग्रंथों ब्राह्मी को लिपिज्ञान तथा सुन्दरी को गणित विषय में पारंगत श्रीमदभागवत.मार्कण्डेयपराण, कर्मपराण, अग्निपुराण, वायपराण, बनाया था। जैन-मान्यता के अनुसार असि (सैन्यकर्म), मसि गरम , मास गरुडपुराण, विष्णुपुराण और स्कन्दपुराण में भी ऋषभदेव के (वाणिज्य) और कृषि को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय भी andaridridadidasardarariandiar३५Harihariridesidiariwarisardaridrianardan ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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