Book Title: Jain Dharm me Tirthankar Ek Vivechan
Author(s): Rameshchandra Gupta
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 17
________________ उल्लेख मिलते हैं । ५४ श्रीमद्भागवत और परवर्ती पुराणों में से अधिकांश में ऋषभदेव का वर्णन उपलब्ध है, जो जैन - परम्परा से बहुत साम्य रखता है। यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म इस ऋग्वेद के १०वें मण्डल के सूत्र १३६ / २ में वातरशना शब्द का प्रयोग हुआ है। 44 व्युत्पत्ति की दृष्टि से वातरशन शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं (१) वात + अशन अर्थात् वायु ही जिनका भोजन है, उन्हें वातरशन कहा जा सकता है। (२) वात+रशन रशन वेष्ठन परिचायक वस्तु ही जिनका वस्त्र दृष्टि से यह नग्न मुनि का परिचायक हो सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार वातरशना का अर्थ नग्न होता है। जैनाचार्य जिनसेन ने वातरशना का अर्थ दिगम्बर किया है और उसे ऋषभदेव का विशेषण बताया है। सायण ने वातरशना का अर्थ वातरशन का पुत्र किया है किन्तु उसका अर्थ वातरशन के अनुयायी करना अधिक उचित है, क्योंकि श्रीमद्भागवत में भी यह कहा गया है कि ऋषभदेव ने वातरशना श्रमणों के धर्म का उपदेश दिया । जैन पुराण श्रीमद्भागवत में वातरशना को जो ऋषभदेव के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया गया है, समुचित तो प्रतीत होता ही है, साथ ही यह भी सूचित करता है कि ऋग्वैदिक काल में ऋषभ की परम्परा प्रचलित थी। 1 ऋग्वेद में 'शिश्नदेवा' शब्द आया है। 'शिश्नदेव' के ऋग्वेद में दो उल्लेख हैं- प्रथम (७ / २१ / ५) में तो कहा गया है कि वे हमारे यज्ञ में विघ्न न डालें और दूसरे (१०/९९/३) में इन्द्र द्वारा शिश्नदेवों को मारकर शतद्वारों वाले दुर्ग की निधि पर कब्जा करने का उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि शिश्नदेव (नग्नदेव) के पूजक वैदिक परम्परा के विरोधी और आर्थिक दृष्टि से संपन्न थे। शिश्नदेवा के दो अर्थ हो सकते हैं। इसका एक अर्थ है शिश्न को देवता मानने वाले, दूसरा शिश्नयुक्त अर्थात् नग्न देवता को पूजने वाले। इन दोनों अर्थों में से भले ही किसी भी अर्थ को ग्रहण करें किन्तु इससे इतना तो स्पष्ट है कि ऋग्वेद के काल में एक परम्परा थी, जो नग्न देवताओं की पूजा करती थी और यह भी सत्य है कि ऋषभ की परम्परा नग्न श्रमणों की परम्परा थी। Jain Education International ऋग्वेद में केशी की स्तुति किए जाने का उल्लेख मिलता है। केशी साधनायुक्त कहे गए तथा अग्नि, जल, पृथ्वी और स्वर्ग को धारण करते हैं। साथ ही सम्पूर्ण विश्व के तत्त्वों का दर्शन करते हैं और उनकी ज्ञानज्योति मात्र ज्ञानरूप ही है । ५६ ऋग्वेद में एक अन्य स्थल पर केशी और ऋषभ का एक साथ वर्णन हुआ है । " श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव के केशधारी अवधूत के रूप में परिभ्रमण करने का उल्लेख मिलता है"। जैनमूर्तिकला में भी ऋषभदेव के वक्रकेशों की परम्परा अत्यन्त प्राचीनकाल से पायी जाती है। तीर्थंकरों में मात्र ऋषभदेव की मूर्ति के सिर पर ही कुटिल (वक्र) केश देखने को मिलते हैं, जो कि उनका एक लक्षण माना जाता है । पद्मपुराण एवं हरिवंशपुराण में भी उनकी लंबी जटाओं के उल्लेख पाए जाते हैं । अतः उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि ऋषभदेव का ही दूसरा नाम 'केशी' रहा होगा। पुरातात्त्विक स्त्रोतों से भी ऋषभदेव के बारे में सूचनाएँ प्राप्त हुई हैं। डॉ. राखलदास बनर्जी द्वारा सिन्धुघाटी की सभ्यता की खोज में प्राप्त सील (मुहर) सं. ४४९ पर चित्रलिपि में कुछ लिखा हुआ है। इसे श्री प्राणनाथ विद्यालंकार ने जिनेश्वरः 'जिनइ-इ- सरः' पढ़ा है। रामबहादुर चन्दा का कहना है कि सिन्धु घाटी से प्राप्त मुहरों में एक मूर्ति मथुरा के ऋषभदेव की खड्गासन मूर्ति के समान त्याग और वैराग्य के भाव प्रदर्शित करती है। इस सील में जो मूर्ति उत्कीर्ण है उसमें वैराग्य भाव तो स्पष्ट है ही, साथ ही साथ उसके नीचे के भाग में ऋषभदेव के प्रतीक बैल का सद्भाव भी है। ११ डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने सिन्धु सभ्यता का अध्ययन करते हुए लिखा कि फलक १२ और ११८ आकृति ७ (मार्शल कृत मोहनजोदड़ो) कार्यात्सर्ग मुद्रा में खड्गासन में खड़े हुए देवताओं को सूचित करती है । यह मुद्रा जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों से विशेष रूप से मिलती है। जैसे - मथुरा से प्राप्त तीर्थंकर ऋषभ की मूर्ति | मुहर संख्या एफ. जी. एच. फलक दो पर अंकित देवमूर्ति एक बैल ही बना है। संभव है कि यह ऋषभ का प्रतीक रूप हो। यदि ऐसा हो, तो शैव-धर्म की तरह जैन धर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धुसभ्यता तक चला जाता है । ६२ डॉ. विंसेन्ट ए. स्मिथ का कहना है कि मथुरा-संबंधी खोजों से यह फलित होता है कि जैन-धर्म के तीर्थंकरों की अवधारणा ई. सन् के पूर्व में विद्यमान थी। ऋषभादि २४ तीर्थंकरों की मान्यता सुदूर प्राचीनकाल में पूर्णतया प्रचलित थी। इस प्रकार ऋषभदेव की प्राचीनता इतिहास के साहित्यिक एवं monsvision 3 & þáviðmónáiðmené For Private Personal Use Only GRAC www.jainelibrary.org

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