Book Title: Jain Dharm me Tirthankar Ek Vivechan Author(s): Rameshchandra Gupta Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 8
________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म भगवान् के पादमूल में प्रशान्तचित्त होकर धर्म-श्रवण ७. उपनीतरागत्व - यथोचित् राग-रागिनी से युक्त होना। करते हैं। उपर्युक्त अतिशय शब्द-सौंदर्य की अपेक्षा से जाने जाते हैं २५. अन्य तीर्थ वाले प्रावचनिक (विद्वान्) भी भगवान को एवं शेष अतिशय अर्थ-गौरव की अपेक्षा से जाने जाते हैं। नमस्कार करते हैं। ८. महार्थत्व - वचनों का महान् अर्थ होना। २६. अन्य तीर्थवाले विद्वान् भगवान के पादमूल में आकर निरुत्तर ९. अव्याहतपौर्वापर्यत्व - पूर्वापर अविरोधी वाक्य वाला होना। हो जाते हैं। १०. शिष्टत्व - वक्ता की शिष्टता का सूचक होना। साथ ही जहाँ भगवान् का विहार होता है, वहाँ पच्चीस ११. असन्दिग्धत्व - सन्देहरहित निश्चित अर्थ का प्रतिपादक योजन तक निम्न बातें नहीं होती - होना। २७ ई. अर्थात् धान्य को नष्ट करने वाले चूहे आदि प्राणियों १२. अपहृतान्योत्तरत्व - अन्य पुरुषों के दोषों को दूर करने की उत्पत्ति नहीं होती। वाला होना। २८. महामारी (संक्रामक बीमारी) नहीं होती। १३. हृदयग्राहित्व - श्रोताओं के हृदय को आकृष्ट करने वाले २९. अपनी सेना उपद्रव नहीं करती। वचन वाला होना। ३०. दूसरे राजा की सेना उपद्रव नहीं करती। १४. देश-कालाव्ययीतत्व - देशकाल के अनुकूल वचन होना। ३१. अतिवृष्टि नहीं होती। १५. तत्त्वानुरूपत्व - विवक्षित वस्तुस्वरूप के अनुरूप वचन होना। ३२. अनावृष्टि नहीं होती। १६. अप्रकीर्णप्रसृतत्व - निरर्थक विस्तार से रहित सुसम्बद्ध ३३. दुर्भिक्ष नहीं होता। वचन होना। ३४. भगवान् के विहार से पूर्व उत्पन्न हुई व्याधियाँ भी शीघ्र ही १७. अन्योन्यप्रगृहीतत्व - परस्पर अपेक्षा रखने वाले पदों एवं शान्त हो जाती हैं और रुधिरवृष्टि तथा ज्वरादि का प्रकोप वाक्यों से युक्त होना। नहीं होता। १८. अभिजातत्व - वक्ता कुलीनता और शालीनता के सूचक (स) वचनातिशय होना। जैन आगामों में पैंतीस वचनातिशयों के उल्लेख मिलते १ अतिस्निग्धमधुरत्व - अत्यन्त स्नेह एवं मधुरता से युक्त हैं३३। संस्कृत-टीकाकारों ने प्रकारान्तर से ग्रन्थों में प्रतिपादित होना। वचन के पैंतीसगणों का उल्लेख किया है। यही पैंतीस वचनातिशय २०. अपरममवाधत्व- ममवधा न होना। कहलाते हैं, जो निम्नांकित हैं - २१. अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व - अर्थ और धर्म के अनुकूल होना। १. संस्कारत्व - वचनों का व्याकरण-सम्मत होना। २२. उदारत्व - तुच्छतारहित और उदारतायुक्त होना। २. उदात्तत्व- उच्च स्वर से परिपूर्ण होना। २३. परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व - पराई निंदा और अपनी प्रशंसा से रहित होना। उपचारोपेतत्व - ग्रामीणता से रहित होना। ४. गम्भीरशब्दत्व - मेघ के समान गम्भीर शब्दों से युक्त २४. उपगतश्लाघत्व - जिन्हें सुनकर लोग प्रशंसा करें, ऐसे वचन होना। होना। २५. अनपनीतत्व - काल, कारक, लिंग-व्यत्यय आदि व्याकरण ५. अनुनादित्व - प्रत्येक शब्द का यथार्थ उच्चारण से युक्त के दोषों से रहित होना। होना। २६. उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्व - अपने विषय में श्रोताजनों ६. दक्षिणत्व - वचनों का सरलता से युक्त होना। में लगातार कौतूहल उत्पन्न करने वाला होना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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