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रत्नमंडनगणिकृत सारश्वतोल्लास काव्य
(ले. अगरचन्द नाहटा) जैन धर्म प्रकाश पुस्तक ७५, अंक १०- है अत: दोनों प्रतियों से संशोधित करके इसे ११ में श्री हीरालाल रसिकदास कापड़िया का शीघ्र ही प्रकाश में लाना चाहिये । इस तरह लेख 'मुग्धमेधाकरालंकार' संबंधी छपा है। के छोटे छोटे, पर महत्व के अनेक जैन काव्य उसमें उन्होंने उसके कर्ता रत्नमंडन गणि के जो अप्रकाशित है उनका संग्रह निर्णयसागर अन्य रचनाओं का भी परिचय दिया है पर प्रेस से प्रकाशित 'काव्यमाला' के गुच्छकों उनके अतिरिक्त एक और भी लघु काव्य की भांति किया जाना बहुत ही जरूरी है। बीकानेरकी राजकीय अनूप संस्कृत लायब्रेरी में अन्यथा उपेक्षावश वे योंही नष्ट हो जायेंगे, उपलब्ध है, जिसकी नकल मैंने कई वर्षे क्योंकि बहुतसे ऐसे काव्यों की तो केवल एक पूर्व कराई थी। इस १५३ श्लोकोंवाले काच एक प्रति ही अब उपलब्ध है। ऐसे अति की नाम, अंतमें 'सारश्वतोल्लास काव्य' दुर्लभ जैन लघु काव्यों का कुछ परिचय शीघ्र मिलता है। यथा स्मरण यह प्रति १६वी ही में प्रकाशित करूंगा। । १७ वीं शताब्दी की लिखी हुई है। पत्र ।
-सारश्वतोल्लास की आदि और अंत संख्या ६ है। अनूप संस्कृत लायब्रेरी की आदि :सूची में इस काव्य के कर्ता का नाम नंदीरत्त कश्चिजनो लज्जितहज्जाडिना छपा है पर वास्तव में १५२ और १५३ श्रुअपित श्रीगुरुपारिजातः । लोक से उसकी रचना नंदीरत्न गरु की का सारस्वतं सारमवाप्य मंत्रं नक्तं
दिवा जायत जंजपूकः ॥१॥ से 'मणिमंडन' याने रत्नमंडन ने ही की
पद्मासनं पूरयति स्म जपं कुर्वन्न है । १५२ वें श्लोक में इसका नाम 'सार
पापं यदा सौ सं शौचः। श्वतोल्लाल' ग्रंथकारने स्वयं दिया है । जिन
- मेनेखिलरै सबलितप्रसर्प रत्न कोप के पृष्ट ४३५ में 'सारस्वतोद्धारस्तोत्र' ।
जाड्यारिबंधाय स नागपाश: ॥२॥ नंदीरत्न शिष्यरचित का उल्लेख जैन ग्रंथावली अंत:के पृष्ट २८४ और पीटरसन की तीसरी रिपोर्ट श्रीनंदिरत्नाख्यगुरुप्रसादके आधार से किया है। तदनुसार इसकी पासादवांसान सुखः सवेदं । प्रति शांतिनाथ भंडार, खम्भात में हैं। मेरा सारस्वतोल्लास इति प्रतीतं स्फीत . अनुमान है कि सारश्वतोद्धार स्तोत्र और गुणैरातनुते स्म काव्यं ॥ १५२ ।। सारश्वतोल्लास काव्य दोनों एक ही रचना संतु स्तनं चाय धियोध्ययनाय बद्ध में है । इसका निर्णय तो उस प्रति के पाठ को तन्मुखाजमणिमंडनतानयंतः। मिलाने पर ही हो सकेगा। इस लिए मेरे श्रीभारतीतिथिमिथाक्षमंत्रबीजपास सारश्वतोल्लास काव्य की नकल है उस प्रष्ठप्रासादमधिगम्य कविप्रकांडाः ।। १५३ ।। के प्रारम्भ और अंत के कुछ श्लोक नीचे दिये इति सारस्वतोल्लासकाव्यं ॥६॥ श्री ॥६॥ जा रहे हैं। वास्तव में यह छोटासा काव्य शुभं भवतु ॥६॥
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