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हमारा " चूर्णि ” साहित्य
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( ले० अगरचंद नाहटा - बीकानेर )
मूल आगमों की व्याख्या का सर्वप्रथम प्रारंभ नियुक्तियों से होता है। उसके पश्चात् भाष्य एवं चूर्णियों का नम्बर आता है, पर ये व्याख्यायें सभी जैनागमों पर नहीं लिखी गई* । नियुक्ति एवं भाष्य प्राकृत भाषा में ही लिखे गये तब चूर्णि संस्कृत एवं प्राकृत के सम्मिश्रण के रूप में अर्थात् चूर्णि में कोई शब्द व वाक्य संस्कृत का है तो कोई प्राकृत का ।
चूर्णियों का महत्व -
प्राचीन जैनागमों के वास्तविक पाठ एवं अर्थ का निर्णय करने एवं रहस्य को हृदयंगम करने के लिये चूर्णियों का अध्ययन बहुत ही आवश्यक है। इनमें इतिहास एवं सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक वातावरण-अवस्था का भी सूक्ष्म सूचन मिलता है जो भारतीय इतिहास, समाज, भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की
ष्ट से अत्यंत मूल्यवान है, क्योंकि जिस शताब्दी में इनका निर्माण प्रारंभ हुआ उस समय का भारत एवं जैन धर्म-समाज का इतिहास सर्वथा तिमिराछन्न-सा है । विशेषतः तत्कालीन जैन इतिहास के सम्बन्ध में तो हमारी जानकारी नहीं के बराबर है, अतः विविध दृष्टियों से महत्वपूर्ण इन चूर्णियों को प्रकाश में लाना हमारा सर्वप्रथम कर्त्तव्य है ।
प्रकाशन - कुछ वर्ष पूर्व भी आचार्यश्री सागरानंदसूरिजी का ध्यान इनके प्रकाशन की ओर गया था और आपने ६ + चूर्णियों को प्रकाशित भी की पर इधर कइ वर्षों से फिर वह महत्वपूर्ण एवं आवश्यक कार्य स्थगित-सा प्रतीत होता है, अतः हमारे विद्वान् आचार्यो एवं मुनियों का और जैन ग्रन्थ प्रकाशन संस्थाओं का इस परमावश्यक कार्य की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिये यह लेख लिखा जा रहा है ।
* जैसे कई सूत्रों पर केवल निर्युक्तियें ही मिलती है तो कईयो पर भाष्य ही । कई प्रन्थों पर नियुक्ति भाष्य नहीं पर चूर्णियें है । भाष्य तो कुछ प्रन्थों पर ही है ।
x दि. समाज में भी चूर्णियें पाई जाती है, उन पर भी अधिकारी विद्वान् प्रकाश डालेंगे । + आचारांग, सूयगडांग, उत्तराध्ययन, नंदी, अनुयोगद्वार, दशवैकालिक ।
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