Book Title: Jain Dharm Prakash
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Parishad Publishing House Bijnaur

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Page 16
________________ (ST) बनाकर निर्भय हो, ब्रह्मचर्यव्रत युक्त रह मनको संग्रम में कर, मेरे (प्रभु के ) ऊपर चित्त लगावे, मेरे में लीन हो जावे । इस तरह जो योगी सदा निश्चल मनहो अपने आत्माको जोड़ता है, वह परम शांतिरूप निर्वाण को (जो मेरे ही में है) पाता है । योगाभ्यास का आदर्श जैनमूर्ति हैं, जिनके दर्शन से 'संसार तुच्छ व मोक्ष श्रेष्ठ है' ऐसा भाव होजाता है । इस के सिवाय जैन मन्दिर में इधर उधर साधुओं के व उन महान पुरुषों व स्त्रियोंके चित्र मिलेंगे जिन्होंने कोई उत्तम कार्य किया था। शास्त्रों की मरी हुई अलमारी मिलेगी । जप करने की मालायें मिलेंगी - वहाँ प्रायः धर्मसाधनके ही पदार्थ रहते है। बौद्धमतका सिद्धान्त क्षणिकवाद है अर्थात् सर्व पदार्थ क्षणभङ्गुर हैं। जैनमतका सिद्धान्त है कि पदार्थ स्वभावसे नित्य है, परन्तु अवस्थाओंको बदलने की अपेक्षा क्षणभंगुर है। बौद्ध मतके संस्थापक गौतमवुद्ध थे, जो जैनमतके चौबीसवें तीर्थकर श्रीमहावीर स्वामीके समयमें हुए थे। उस समय ही परस्पर जैन और बौद्धों में संवाद हुये। कुछ बौद्ध साधुओं ने जैनियोंके पास जाने की भी मनाई की, ऐसा कथन बौद्ध ग्रंथों में है। बौद्ध स्वयं जैनमत को भिन्न मत कहते है। जैनगृहस्थों को कड़ी आज्ञा है कि वे किसी भी तरह का मांस का श्राहार न करें। मांस न खाना उनके चरित्र के आठ मूलगुणों में से एक है, जब कि बौद्धों के यहाँ गृहस्थों को मांसाहार के त्याग की कड़ी आज्ञा नही है - वे स्वयं मरे हुए पशुका मांस लेने में दोष नहीं समझते हैं। इसीसे चीन व ब्रह्मा में करोड़ों बौद्ध मांसाहारी हैं, जब कि जैन कोई भी प्रगटपने से मांसाहारी न मेलेगा। इसलिये जैनमत बौद्धमत की शाखा है, यह कथन

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