Book Title: Jain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला
षट्खंडागम पुस्तक 15 में भी कहा है
“पदार्थ अनेक धर्मवाला है, अनित्य है, नित्य है, एक है, अनेक है, यों नाना धर्म रूप पदार्थ को अनेकान्त कहते हैं।” “जात्यन्तर भाव को भी अनेकान्त कहते हैं।" इसके साथ ही एक “एक: अपि अन्त: न विद्यते स: अनेकान्त:" भी कहा जाता है। यह जैन धर्म-दर्शन की मौलिक देन है कि पदार्थ का समग्र निर्णय करने हेतु अनेकान्त को पदार्थ स्वरूप, और उसके निरूपण की पद्धति को स्याद्वाद स्वरूप माना है । वैज्ञानिकता इसमें यही है कि अनेकान्त रूप पदार्थ के विशेषणों को लेकर विभिन्न सापेक्ष दृष्टिकोण लिये स्याद्वाद द्वारा कथन के विशेषण समूह बनाये गये हैं । इस सम्बन्ध में स्याद्वाद का वैज्ञानिक निरूपण महलानवीस तथा हाल्डने द्वारा किया गया है । [16] इन्हीं विभिन्न दृष्टियों को लेकर विभिन्न कथनों के अस्ति नास्ति और अवक्तव्य स्वरूपों को आधुनिक तर्कशास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है जिनका उपयोग गणितीय दृष्टिकोणों से विभिन्न प्रकार की समस्याओं को हल करने हेतु (या-बूलीय तर्क) कम्प्यूटर आदि प्रणालियों में हुआ है और होता जा रहा है। गणितीय न्याय के तर्क प्रतीकों में अवतरित हो चके हैं और गणित को आभासों से बचाने हेतु नई बुनियादें डाली जा चुकी हैं। इनमें विशेष योगदान के लिए राशि सिद्धान्त के विस्तृत क्षेत्र में पीनो, केण्टर, रसैल, बोवर, हिल्बर्ट आदि विद्वान् जगत्प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं । राशियों को क्रमबद्ध अथवा अक्रमबद्ध रूप रचित करने सुक्रमबद्धी साध्य तथा विकल्प स्वयंसिद्ध रूप में बनाये जा चुके हैं जिनसे क्रमबद्धपर्याय आदि नये प्रचलित सिद्धान्तों का अच्छी तरह विश्लेषण एवं निर्णय किया जा सकता है । [17] जहाँ भी केवल ज्ञान राशि में गर्भित राशियों के प्रतिबोधादि की समस्याएँ उठ खड़ी होंगी, उन्हें वैज्ञानिक पद्धति द्वारा हल करना युक्ति संगत होगा । वहाँ आकारी तर्कशास्त्र (Formal Logic) का प्रयोग अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकेगा। गंभीर चर्चाओं एवं गहन अध्ययन वाली संस्थाओं में, न कि जल्प-वितण्डित लोक चर्चा में, इन्हें स्थान दिया जाना अब आवश्यक हो गया है यदि हम सत्यान्वेषण को प्रश्रय देना चाहते हैं । [18] विस्तार भय से हम इस विषय को यहीं छोड़ना उपयुक्त समझते हैं । नयों, उपनयों का विस्तृत विवेचन मनोहर लाल वर्णी सहजानन्द' द्वारा समयसार एवं प्रवचनसार की सप्त दशांगी टीकाओं में वैज्ञानिक पद्धति से किया गया है और वह विदेशों में गहनतम अध्ययन की वस्तु बन सकता है । [19] यहाँ हम सुरेन्द्र बारलिंगे की अभ्यक्ति प्रस्तुत करते हैं जो उन्होंने भारतीय तर्कशास्त्र की रूपरेखा में प्रस्तुत की है___ “जैन तर्कज्ञों के तर्कशास्त्रीय विचार भी सचमुच उपेक्षणीय नहीं हैं । वस्तुत: जैन तर्कशास्त्र की एक स्वतंत्र और प्रदीर्घ 2000 वर्षों की प्राचीन परम्परा रही है । परन्तु जैन तर्कशास्त्र का प्रमुख वैशिष्ट्य उसका प्रसिद्ध सप्तभंगी नय का सिद्धान्त और स्याद्वाद या शक्यताओं के तर्कशास्त्र का सूत्रीकरण है। हमारा यह अभिमत है कि ये दोनों सिद्धान्त स्वतंत्र हैं और तर्कशास्त्र के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। आधुनिक जैन तर्क पंडितो
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