Book Title: Jain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 16
________________ पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला स्थापित किया जाना भी एक बड़ा आविष्कार था । जार्ज केण्टर द्वारा अनन्त को उचित रूप दिया गया तथा अनन्तों के बीच अल्प बहुत्व स्थापित करने की विधि को निगमन एवं द्विरूप वर्ग धारा जैसी भंग विधि से परिपष्ट किया गया। त्रिलोकसार एवं गोम्मटसार में तथा धवला टीका में भी ऐसी धाराओं को विकसित किया गया था जो गणितीय न्याय के आविष्कार में एक नया इतिहास जोड़ गया। [9] केण्टर की विकर्ण विधि ने विश्व को बतला दिया कि अनन्त से बड़े अनन्त का भी अस्तित्व असिद्ध नहीं किया जा सकता है। [10] वीरसेनाचार्य ने भी एक-बहुसंवाद, एवं एक-एक संवाद द्वारा जिसे बाद में जार्ज केण्टर द्वारा भी अपनाया गया था, अनन्त से बड़े अनन्त की स्थापना को सिद्ध किया था। [11] ये सभी गणनानन्त कहलाने लगे। जघन्य और उत्कृष्ट (minima and maxima) प्रमाण राशियों के बीच वर्ती राशियों को मध्यम रूप स्थापित कर, अनेक स्थलों पर विज्ञान का चमत्कार बतलाया गया है। जघन्य और उत्कृष्ट पर आज विज्ञान टिका हुआ है, क्योंकि प्रत्येक विज्ञान में शक्ति समीकरणों की स्थापना और उनसे अज्ञात शक्तियों के प्रमाणों को प्राप्त करना, बलों को प्राप्त करना, आदि जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाणों के आधार पर ही हुआ करता है, जिन्हें Principles of Variations कहा जाता है । [12] ऐसे सैकड़ों उदाहरणों से धवलादि टीकाएँ भरी पड़ी हैं। द्विरूप वर्गधारा ही विकल्पों के माध्यम से जुड़ी है जहाँ गणितीय न्याय परिमित से अपरिमित के विधानों को निर्मित करता चला जाता है। गणितीय न्याय ने अपनी भूमिका वहाँ भी निभाई जब अस्तित्वशील अनन्त असंख्यात राशियों को प्रतिबोधित करने के लिए उपमाप्रमाण और संख्या प्रमाण में अनेक प्रकार की राशियों को उत्पन्न कर उनके समकक्ष अस्तित्वशील राशियों को रखा गया। [13] इस प्रकार संख्या प्रमाण, काल प्रमाण और क्षेत्र प्रमाण द्वारा भाव प्रमाण भी स्थापित किया गया। [14] भाव अत्यन्त सूक्ष्मता लिये हुए है जिसे यहाँ phase of knowledge कहा जा सकता है। __पुन: गणितीय न्याय से सम्बन्धित अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद हैं । वीरसेनाचार्य द्रव्य प्रमाणानुगम में बतलाते हैं, “द्रव्य की एक पर्याय संख्यान है, इसलिये द्रव्य और प्रमाण में एकत्व अर्थात् सर्वथा अभेद नहीं है ।" कहा भी है [15] नानात्मतामप्रजहत्तदेकमेकात्मतामप्रजहच्च नाना। अंगागिभावात्तव वस्तु यत्तत् क्रमेणवाग्वाच्यमनन्तरूपम् ॥ 5 ॥ अर्थात् अपने गुणों और पर्यायों की अपेक्षा नाना स्वरूपता को न छोड़ता हुआ वह द्रव्य एक है और अन्वय रूप से एकपने को नहीं छोड़ाता हुआ वह अपने गुणों और पर्यायों की अपेक्षा नाना है। इस प्रकार अनन्त रूप जो वस्तु है वही, हे जिन, आपके मत में क्रमश: अंगांगीभाव से वचनों द्वारा कही जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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