Book Title: Jain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला
में किसी उत्कृष्ट वैज्ञानिक विधि का अवलम्बन किया गया था, जिससे भाषा एवं गणित की अभिव्यक्ति एक ही व्यंजन में स्वर को बिन्दु अथवा रेखाघात द्वारा क से के, असे आ आदि रूप में अवतरित किया जा सका । यह विधि विश्व में और कहीं उपलब्ध नहीं थी ।
प्रमाण विषयक संदृष्टियाँ
आज के विज्ञान की उत्कृष्ट उपलब्धियों में कारणभूत ऐसे समीकरण होते हैं जो अज्ञात चर तथा ज्ञात चर और अचर राशियों के बीच इंद्रियगम्य अवलोकित न्यास के आधार पर बनाए जाते हैं । वस्तुत: उन्हीं के द्वारा नव अज्ञात विशुद्ध बुद्धि के द्वारा खोज किया जाता है तो इस सिद्धान्त को प्रयोग द्वारा पुष्ट किया जाता है। ठीक यही शैली दिगम्बर जैन कर्म सिद्धान्त विषयक ग्रन्थों की विशाल टीकाओं धवल, महाधवल तथा जयधवल में अंक एवं रेखा संदृष्टि रूप में तथा गोम्मट सारादि की कर्णाटक वृत्ति एवं सम्यक् ज्ञानचंन्द्रिका टीकाओं में अंक, अर्थ एवं आकार रूप संदृष्टियों में प्राप्त होती है । इन समीकरणों का गणित वस्तुत: परम वैज्ञानिक रूप में विकास को प्राप्त हुआ था जिसमें कर्म परमाणु युक्त निषकों की रचना गुणहानि, स्पर्धक, वर्गणा, वर्ग रूप में दिखा कर अनेक प्रकार के, स्थिति रचना यंत्रादि बनाये गये थे जो अध्ययन की वस्तु बनाये जाना आवश्यक थे और हैं । अभी भी इन्हें और अधिक विकसित किया जा सकता है । वक्ता को इण्डियन नेशनल सांइस अकादमी से लब्धिसार पर प्रोजेक्ट (1984-87 ) मिला था उसे प्राय: 3000 पृष्ठों में आधुनिक एवं प्राचीन प्रतीकों में पूर्ण किया गया है जो द्रष्टव्य है तथा प्रत्येक जैन शिक्षण संस्था में पढ़ाया जाये तो वह कर्म सिद्धान्त और उससे भी परे की रहस्यमय सामग्री आज के प्रणाली ( system) सिद्धान्त तथा नियंत्रण (cybernetics) सिद्धान्त में विशेष अवदान दे सकती है । [8] गणितमय इस विषय को कोर्स में रखना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा । जैसे मैथामेटिकल फिजिक्स आदि का अध्ययन अत्यंत गंभीर और फलदायी सिद्ध हुआ है, उसी प्रकार वक्ता ने मैथामेटिकल जैनालाजी का सिलेबस एम.ए. जैनालाजी के दो वर्ष में पूर्ण किये जाने योग्य कोर्स के रूप में तैयार किया है तथा विभिन्न केन्द्रों में भेजने का विचार किया है ।
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गणितीय दर्शन एवं न्याय
सम्पूर्ण विश्व के किसी भी धर्म ग्रन्थ में अनन्तों के अल्प बहुत्व का विवरण नहीं मिलता है । दर्शन में भी नहीं उपलब्ध है । केवल जैन ग्रन्थों में, विशेषकर दिगम्बर जैन कर्म सिद्धान्त ग्रन्थों में, अर्थों के प्रतीक सहित अनन्तात्मक राशियों, असंख्यात्मक राशियों एवं संख्यात्मक राशियों के बीच अल्प बहुत्व के सम्बन्ध, उनकी उत्पत्ति, निष्पत्ति आदि, अनेक विधियों द्वारा प्रतिबोधित किये गये हैं । सांत और अनन्त के मध्य असंख्यात का
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