Book Title: Jain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 24
________________ 16 पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला मर्तियाँ प्रतिष्ठित की जाती थीं। कुषाण काल की अनेक जिन मूर्तियाँ मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त हुई हैं । लोहानीपुर से प्राप्त जिन प्रतिमा और हड़प्पा से प्राप्त मस्तकंहीन नग्न मूर्ति से बड़ा साम्य है। जैन मूर्तियों की विशेषता अलग ही प्रकार की है, जो कायोत्सर्ग या पद्मासन वाली होती हैं । तीर्थंकर मूर्तियों में विशेष चिन्ह भी होते हैं, नासाग्र दृष्टि होती है, और भी लक्षण होते हैं । इस प्रकार प्रतिमा विज्ञान में धातु की मूर्तियाँ, बाहुबलि की मूर्तियाँ, चक्रेश्वरी, पद्मावती आदि यक्षियों की मूर्तियाँ, अम्बिका देवी की मूर्ति, सरस्वती की मूर्ति, अच्युता देवी की मूर्ति, नैगमेश की मूर्ति आदि प्रसिद्ध हैं जो पाई भी जाती हैं । [47] जैन चित्रकला [48] का प्राचीनतम उल्लेख जैन श्रुतांग, नायाधम्म कहाओं में धारणी देवी के शयनागार के वर्णन में प्राप्त है । इसी प्राकर बृहत्कल्पसूत्र भाष्य, आवश्यक-टीका आदि में चित्रकला प्रारम्भ हई है। ई. 625 से भित्तिचित्र प्राप्त हैं, जो सित्तन्न वासल, एलोरा, श्रवणबेलगोल, जैन मठ में प्राप्त हए हैं । ताड़पत्रीय चित्र भी 11वीं शती से प्राप्त हैं । षटखंडागम की ताड़पत्रीय प्रतियों में, निशीथचूर्णि ताड़पत्रीय प्रति में, ओघनिर्यक्ति ताड़पत्रीय प्रति में, कथासंग्रह की ताड़पत्रीय प्रति में, जैन शैली की विशेषता लिए हुए चित्र प्राप्त हैं । बाद के चित्रों का संग्रह साराभाई नवाब और डा. मोती चंद द्वारा मिनिएचर पेंटिंग रूप में प्राप्त है । इसी प्रकार कागज पर भी चित्र पाये गये हैं। ये लगभग 1160 से प्रारंभ हए माने जाते हैं जिनका प्रारम्भ जैसलमेर जैन भंडार में ध्वन्यालोक-लोचन की प्रति में माना गया है । इसी प्राकर काष्ठ चित्र, वस्त्र पर चित्रकारी आदि प्राप्त हैं। इन सभी में जैन विज्ञान दृष्टिगत है। इसी प्रकार संगीत-कला आदि कलाओं पर सामग्री धीरे-धीरे प्राप्त होती जा रही हैं । [49] सभी में वीतरागता की ओर प्रवृत्ति और संसार से निवृत्ति भावना प्रकट है। हम गोम्मटेश्वर बाहुबलि की श्रवण बेलगोल में विध्यगिरि पर स्थित मूर्ति के विज्ञान पर अपना अभिमत प्रकट करेंगे जो अद्भुत रूप से रमणीय है, शुचि है, लावण्यमयी है, चारु है, सुन्दर है, शोभित है, कान्तिपूर्ण है, सुषमा सी है, श्रीपूर्ण है, रूपमयी है, सौकुमार्य पूर्ण है, सौभाग्यशाली है, विच्छित्तिमय है, कलापूर्ण है, मुग्धता से ओतप्रोत है, मनोहारी है, अभिराम है, मधुर है । उसके गणितीय अनुपात विलक्षण हैं और उसका शिल्प आकाश में स्पर्श कर रहा है । प्रथम कामदेव गोम्मटेश्वर अपनी बहिन सुन्दरी के केवल एक ही भाई थे। वही सुन्दरी जिन्होंने पिता भगवान ऋषभदेव से अंक विद्या सीखी थी । भगवान् बाहुबली, जिस रूप में जिस प्रकार उकेरे गये, उसी प्राकर अर्थ संदृष्टि मय गणित लिये नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के गोम्मटसार और लब्धिसार ग्रन्थों का मानों उन्हें दिग्दर्शक बनाया गया ताकि गणित की उपेक्षा न हो पाये। किन्तु अब न तो बृहद् धारा परिकर्म उपलब्ध है, न ही चामुण्डराय की टीकाएँ । हमें प्रारम्भ करना पड़ा है केशववर्णी (13वीं सदी) की कर्णाटक वृत्ति से, जिसका आखिरी रूप पं. टोडरमल की सम्यग्ज्ञान चंद्रिका टीका है जिसके अर्थ संदृष्टि अधिकार अब पढ़े जाने लगे हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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