Book Title: Jain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 28
________________ 20 1 पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । इन्द्रियों को विषयों से हटाकर और मन को भी विषयों से दूर कर समाधिपवूक उस मन को अपनी विशुद्ध आत्मा के ध्यान में लगाना चाहिये । इत्यादि । करण लब्धि सम्बन्धी विवरण कसायपाहुड़, जयधवला, लब्धिसारादि ग्रन्थों से भलीभांति ज्ञातव्य है । उसे ध्यान में रखकर इस विज्ञान को बहुत आगे तक विकसित किया जा सकता है और प्रयोगों के फल को देखा जा सकता है । [52] धरसेनाचार्य से गुणधराचार्य का समय लगभग 200 वर्ष पूर्व प्रतीत होता है जिनके कसायपाहुडसुत्त पर वीर सेनाचार्य एवं जिनसेनाचार्य द्वारा जयधवल टीका नवीं सदी में निर्मित की गई । इसका दसवाँ अध्याय सम्मत्त - अत्थाहियारो (सम्यक्त्व - अर्थाधिकार) है जिन पर यतिवृषभाचार्य के चूर्णिसूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें तीनों करणों के लक्षणों का विवेचन है । वह विशुद्धि के गणितीय रूप को लेकर है। जैन धर्म में, इस प्रकार दर्शनमोह के उपशमन में विशुद्धि के विचरण (Variation) की भूमिका प्रधानतम है, श्रेणियों में विभक्त है, मात्रा और शक्ति के गण्य है । मात्रा का आधार असंख्यात लोक प्रमाण को लेकर है ओर शक्ति का आधार अनन्त गुणकार को लेकर है । विशुद्धि का विचरण प्रति निर्वगणाकाण्डक का आधार लेकर है। जितने काल आगे जाकर निरुद्धया विवक्षित समय के परिणामों को अनुकृष्टि विच्छिन्न हो जाती है, उसे निर्वगणाकांडक कहते हैं । करणों के इन विशुद्धि विचरण के समीकरण आधुनिक मैट्रिक्स-कलन या टेन्सरादिकलन रूप प्रस्तुत किये जा सकते हैं; आपरेटर, आपरेण्ड एवं ट्रांस्फार्म रूप में स्थापित कर गहन अध्ययन का विषय बन जाते हें। (कसायपाहुडसुत्त 91-109, कलकत्ता) । यहां गणितीय विशद स्वरूप के दिये निर्देश एवं टिप्पणी 8 देखिये । इसके द्रव्य श्रुत संरक्षण एवं प्रसारण हेतु अब जागृत होना श्रेयस्कर होगा । यहाँ तक लब्धिसार का विषय है और आगे क्षपणासार का । इसी प्रकार चारित्र मोह की उपशामना और क्षपणा के अर्थाधिकारों के अध्ययन इन्हीं करणत्रय को आधारभूत लेकर हैं। मोह के क्षपण में कार्यकारी ऐसे विशुद्धि रूप परिणाम ही जैन धर्म के प्राण हैं जिनके फलस्वरूप क्षायिक सम्यक्त्व रूप लब्धि और केवल ज्ञान रूप क्षायिक लब्धि प्राप्त होती है । अत: विशुद्धि का लक्षण करण लब्धि में कैसी प्रतीति देता है यह जीव स्वयं में पहिचान ले यही जीवन की अमोल सार्थकता है, अन्य से परे, अत्यन्त परे । योग्यता हेतु यही शृंखलाबद्ध प्रक्रिया को सार्थक बनाने में निमित्त रूप है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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