Book Title: Jain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला सभी बंध, उदय और सत्ता के भेद से अनेक प्रकार का कर्म समवदान कर्म है । जिस शरीर में स्थित जीवों के उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ अन्य के निमित्त से होते हैं वह शरीर अध: कर्म है। ईर्या का अर्थ योग है। योग मात्र के कारण जो कर्म बंधता है वह ईर्यापथ कर्म है । (ध. 13 पृ. 45 आदि) । जो कषाय का अभाव होने से स्थिति बन्ध के अयोग्य है, कर्मरूप से परिणत होने के दूसरे समय में ही अकर्मभाव को प्राप्त हो जाता है, और स्थिति बन्ध न होने से मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है, अत: ईर्यापथ कर्म अल्प है। यहाँ कषाय का अभाव होने से जघन्य अनुभाग स्थान के जघन्य स्पर्धक से अनन्त गुणेहीन अनुभाग से युक्त कर्मस्कन्ध बंध को प्राप्त होने से अनुभाग बंध नहीं है—ऐसा कहा जाता है। ईर्यापथ कर्मस्कन्ध रुक्ष है, क्योंकि पुद्गल प्रदेशों में चिरकाल तक अवस्थान का कारण स्निग्ध गुण का प्रतिपक्ष गुण उसमें स्वीकार किया गया है। यहाँ द्वयधिक गुण वाले रुक्ष गुणवालों का बंध पाया जाता है। लोक में जो काम सुख है और जो दिव्य महासुख हैं, वह वीतराग सुख के अनन्तवें भाग के योग भी नहीं हैं। तीन रत्नों को प्रकट करने के लिए इच्छा निरोध को तप कहते हैं । तप: कर्म आभ्यन्तर और बाह्य के भेद से बारह प्रकार का है ।
जीव का लक्षण उपयोग जो साकारोपयोग और अनाकारोपयोग रूप है। साकार उपयोग का नाम ज्ञान जिसे आवरण करने वाला कर्म ज्ञानवरणीय है तथा साकार उपयोग से अन्य अनाकार उपयोग का नाम दर्शन है। कर्म - कर्तृभाव का नाम आकार है। उसका आकार के साथ जो उपयोग रहता है उसका नाम साकार है। अंतरंग को विषय करने वाले उपयोग को अनाकार उपयोग रूप से स्वीकार किया है । अन्तरंग उपयोग विषयाकार होता है यह भी बात नहीं है क्योंकि इसमें कर्ता द्रव्य से पृथग्भत कर्म नहीं पाया जाता। एक बहिरंग अर्थ को विषय करता है और दूसरा अंतरंग अर्थ को।।
(ध. 13, पृ. 206 आदि) अभिमुख और अनियमित अर्थ का ज्ञान होना अभिनिबोधक ज्ञान है । इन्द्रिय और नोइन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य अर्थ का नाम अभिमुख है। अर्थ, इन्द्रिय, आलोक
और उपयोग के द्वारा ही मनुष्यों के रूप ज्ञान की उत्पत्ति होती है । अर्थ, इन्द्रिय और उपयोग के द्वारा ही रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श ज्ञान की उत्पत्ति होती है । दृष्ट, श्रुत और अनुभूत अर्थ तथा मन के द्वारा नोइन्द्रिय ज्ञान की उत्पत्ति होती है—यह यहाँ नियम है । इस नियम के अनुसार अभिमख अर्थों का जो ज्ञान होता है वह अभिनिबोधक ज्ञान है
और उसका आवारक कर्म आभिनिबोधिक ज्ञानवरणीय है । मतिज्ञान के द्वारा ग्रहण किये गये अर्थ के निमित्त से जो अन्य अर्थों का ज्ञान होता है वह श्रुत ज्ञान है । मतिज्ञान पूर्वक श्रुत ज्ञान होता है । कारण में कार्य के उपचार से शब्द को भी श्रुत कहते हैं। एकेन्द्रिय जीव श्रोत्र और नोइन्द्रिय से रहित होने पर भी जाति विशेष के कारण लिंगी विषयक ज्ञान की उत्पत्ति उनमें हो जाती है । इस श्रुत का आवारक श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म है।
(ध. 13, पृ. 210)
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