Book Title: Jain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला
उपसंहार
"ज्ञान समान न आन जगत में सुख का कारन",अथवा "कोटि वर्ष तप त ज्ञान बिन कर्म खिरैजे,
ज्ञानी के क्षिण मांहि त्रिगुप्ति नै सहज ट. जे" उपरोक्त पंक्तियाँ वस्तुत: उसी संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य की ओर इंगित करती हैं जो पर वस्तु, द्रव्य या भाव में रमणता को मिथ्यात्व संज्ञा देता है । पर से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध जोड़ते ही ध्रुवीकरण की स्थिति आती है और उसे ढोने वाली कषाय अंतत: टकराहट का कारण बनती ही है। अत: स्व में रमणता सम्यक्त्व की संज्ञा पा जाती है। स्व अर्थात् ज्ञान स्वभाव जो हर तरह से आत्मा से ही संबंधित है। निश्चित ही सम्यक्त्वी जीव असहाय पराक्रम को प्राप्त होता है, और उसके साथ-साथ उसका समाज, उसका देश या जो भी उसके संपर्क में आते हैं एक अद्वितीय आत्मीयता अपनी ही आत्मा से स्थापित करते चले जाते हैं—मानो एक तीर्थ का ही निर्माण कर लेते हों जिसे वीतराग विज्ञान से प्राप्त सुफल कहा जा सकता है । स्व का असहाय पराक्रम जिसे पर्यावरण, जिसे परिस्थिति, जिसे विज्ञान की कला, जिसे कला का विज्ञान या तंत्र उत्पन्न करता चला जाता है, वह भी कालवश अंतत: रहस्यों के अंधेरों में विलुप्त होता चला जाता है। फिर फिर ज्ञान सूर्य के उदय होते हैं, शीतलता के चंद्रोदय होते हैं, रात्रियों के तारे सितारे उदय होते हैं, समुद्रों में ज्वार भाटे आते हैं, नदियों में बाढ़ें, सुखों और दुखों के साये, आदि, किन्तु जब यह जीव अपने ही किनारे पर आ लगता है, अपने ही स्रोत में लीन हो जाता है, तब बाह्य वस्तुएँ उसके लिए कोई मायना नहीं रखती हैं और न उनके कोई सम्बन्ध या स्मृतियाँ या अभिनिबोधताएँ । उसका भावश्रुत ज्ञान ही असीम होता चला जाता है, ज्ञान राशियों में ज्ञेय राशियाँ बिना किसी सम्बन्ध के उतरती चली जाती हैं—यही ज्ञान का माहात्म्य है । यही वैज्ञानिकता है जो जैन धर्म ने पुन: पुन: अवतरित की हैं, की थीं और करता रहेगा-वह जाति, पांति, संबंध, पक्षपात, भाई-भतीजावाद, राजनीति, समाजनीति आदि जकड़ने वाले सभी बंधनों से परे भूमिका निभाता रहा है, अपने दोषों को बिना छुपाये, ऋजुता से उघाड़कर क्षमा की असीम ऊंचाइयों तक पहुँचाता रहा है, और निश्चित है कि तुच्छ से तुच्छ जीव जन्तुओं से भी, बैरियों से भी समता का पाठ सिखाता रहा है। यही उसकी वैज्ञानिकता है। उसने व्यक्ति के, समाज के, देश के, राज्य के, साम्राज्य के, लोक के, परलोक के मनो विज्ञानों, वचन-विज्ञानों, काय विज्ञानों तथा काषायिक विद्वानों की थाह ली है और वर्तमान की ज्ञानादि की सीमाओं को प्रतिपक्ष रुढ़िवाद से हटकर, बढ़ाया ही है, घटाया नहीं । संकुचित किया नहीं । मुख मोड़ा नहीं।
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