Book Title: Jain Darshan me Mithyatva aur Samyaktva Ek Tulnatmaka Vivechan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 4
________________ | श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ चिन्तन के विविध बिन्दु : ५२२ : ५. अज्ञान-जन विचारकों ने अज्ञान को पूर्वाग्रह, विपरीत ग्रहण, संशय और एकान्तिक ज्ञान से पृथक् माना है । उपरोक्त चारों मिथ्यात्व के विधायक पक्ष कहे जा सकते हैं, क्योंकि इनमें ज्ञान तो उपस्थित है लेकिन वह अयथार्थ है । इनमें ज्ञानामाव नहीं वरन् ज्ञान की अयथार्थता है ; जबकि अज्ञान ज्ञानाभाव है । अतः वह मिथ्यात्व का निषेधात्मक पक्ष प्रस्तुत करता है। अज्ञान नैतिक साधना का सबसे अधिक बाधक तत्त्व है क्योंकि ज्ञानाभाव में व्यक्ति को अपने लक्ष्य का भान नहीं हो सकता है, न वह कर्तव्याकर्तव्य का विचार कर सकता है। शुभाशुभ में विवेक करने की क्षमता का अभाव अज्ञान ही है । ऐसे अज्ञान की अवस्था में नैतिक आचरण सम्भव नहीं होता। मिथ्यात्व के २५ प्रकार मिथ्यात्व के २५ भेदों का विवेचन हमें प्रतिक्रमण सूत्र में प्राप्त होता है जिनमें से १० भेदों का विवेचन स्थानांग सूत्र में है, मिथ्यात्व के शेष भेदों का विवेचन मूलागम ग्रन्थों में यत्र-तत्र बिखरा हुआ मिलता है। (१) धर्म को अधर्म समझना। (२) अधर्म को धर्म समझना। (३) संसार (बन्धन) के मार्ग को मुक्ति का मार्ग समझना। (४) मुक्ति के मार्ग को बन्धन का मार्ग समझना । (५) जड़ पदार्थों को चेतन (जीव) समझना। (६) आत्मतत्त्व (जीव) को जड़ पदार्थ (अजीव) समझना। (७) असम्यक् आचरण करने वालों को साधु समझना । (८) सम्यक् आचरण करने वालों को असाधु समझना । (६) मुक्तात्मा को बद्ध मानना। (१०) राग-द्वेष से युक्त को मुक्त समझना। (११) आभिग्रहिक मिथ्यात्व-परम्परागत रूप में प्राप्त धारणाओं को बिना समीक्षा के अपना लेना अथवा उनसे जकड़े रहना। (१२) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व-सत्य को जानते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करना अथवा सभी मतों को समान मूल्य वाला समझना। (१३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व-अभिमान की रक्षा के निमित्त असत्य मान्यता को हठपूर्वक पकड़े रहना। (१४) सांशयिक मिथ्यात्व-संशयशील बने रहकर सत्य का निश्चय नहीं कर पाना। (१५) अनाभोग मिथ्यात्व-विवेक अथवा ज्ञानक्षमता का अभाव। (१६) लौकिक मिथ्यात्व-लोक रूढ़ि में अविचारपूर्वक बंधे रहना । (१७) लोकोत्तर मिथ्यात्व-पारलौकिक उपलब्धियों के निमित्त स्वार्थवश धर्म साधना करना। (१८) प्रवचन मिथ्यात्व-मिथ्या दार्शनिक विचारणाओं को स्वीकृत करना। (१६) न्यून मिथ्यात्व-पूर्ण सत्य अथवा तत्त्व स्वरूप को आंशिक सत्य समझ लेना अथवा न्यून मानना। १६ स्थानांग, स्थान १० । तुलना कीजिए-अंगुत्तरनिकाय १।१०-१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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