Book Title: Jain Darshan me Mithyatva aur Samyaktva Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ : ५४१ मिथ्यात्व और सम्यक्त्व एक तुलनात्मक विषेश्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ सम्यक्त्व में नहीं होती है क्योंकि उपशम सम्यवश्व की समयावधि ही इतनी क्षणिक होती है कि दोष होने का अवकाश ही नहीं रहता और क्षायिक सम्यक्त्व पूर्ण शुद्ध होता है अतः वहां भी दोषों की सम्भावना नहीं रहती है । सम्यदर्शन के आठ अंग या आठ दर्शनाचार उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन की साधना के आठ अंग प्रस्तुत किये गये हैं जिनका समाचरण साधक के लिए अपेक्षित है । दर्शनविशुद्धि एवं उसके संवर्द्धन और संरक्षण के लिए इनका पालन आवश्यक माना गया है। उत्तराध्ययन में वर्णित यह आठ प्रकार का दर्शनाचार निम्न है ४ - अमूढदृष्टि ५- उपबृंहण १ - निःशंकित २-निकांक्षित ३- निविचिकित्सा ६- स्थिरीकरण ७ वात्सल्य और प्रभावना ।" ८- १. निःशंकता संशयशीलता का अभाव ही निःसंकता है। जिनप्रणीत तत्त्व-दर्शन में शंका नहीं करना --- उसे यथार्थ एवं सत्य मानना, यही निःशंकता है । संशयशीलता साधनात्मक जीवन के विकास का विघातक तत्त्व है। जिस साधक की मनःस्थिति संशय के हिंडोले में झूल रही हो वह भी इस संसार में झूलता रहता है (परिभ्रमण करता रहता है) और अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता । साधना के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साध्य, साधक और साधना-पथ तीनों पर अविचल श्रद्धा चाहिए। साधक में जिस क्षण भी इन तीनों में से एक के प्रति भी सन्देहशीलता उत्पन्न होती है, वह साधना के क्षेत्र में च्युत हो जाता है । यही कारण है कि जैन विचारणा साधनात्मक जीवन के लिए निश्शंकता को आवश्यक मानती है । निश्शंकता की इस धारणा को प्रज्ञा और तर्क की विरोधी नहीं मानना चाहिए । संशय ज्ञान के विकास में साधन हो सकता है लेकिन उसे साध्य मान लेना अथवा संशय में ही रुक जाना यह साधनात्मक जीवन के उपयुक्त नहीं है। मूलाचार में निश्शंकता को निर्भयता माना गया है। नैतिकता के लिए पूर्ण निर्भय जीवन आवश्यक है । भय पर स्थित नैतिकता सच्ची नैतिकता नहीं है । २. नि०कांक्षता स्वकीय आनन्दमय परमात्मस्वरूप में निष्ठावान रहना और किसी भी परभाव को आकांक्षा या इच्छा नहीं करना यही निष्कांक्षता है। साधनात्मक जीवन में भौतिक वैभव अथवा ऐहिक तथा पारलौकिक सुख को लक्ष्य बना लेना, यही जैनदर्शन के अनुसार 'कांक्षा' है । " किसी भी लौकिक और पारलौकिक कामना को लेकर साधनात्मक जीवन में प्रविष्ट होना यह जैन विचारणा को मान्य नहीं है; वह ऐसी साधना को वास्तविक साधना नहीं कहता है क्योंकि वह आत्मकेन्द्रित नहीं है । भौतिक सुखों और उपलब्धियों के पीछे भागने वाला साधक चमत्कार और प्रलोभन के पीछे किसी भी क्षण लक्ष्यच्युत हो सकता है। इस प्रकार जैन साधना में यह माना गया है कि साधक को साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के लिए निष्कांक्षित अथवा निष्काम भाव से युक्त होना चाहिए । आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध युपाय में निष्कांक्षता का अर्थ एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहना किया है।" इस आधार पर अनाग्रहयुक्त दृष्टिकोण सम्यक्त्व के लिए आवश्यक माना गया है । -- ६१ उत्तरा० २८३१ ६३ मूलाचार २५२-५३ ६५ पुरुषार्थ० २४ Jain Education International ६२ आचारांग ११५।५।१६३ ६४ रत्नकरण्ड श्रावकाचार १२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30