Book Title: Jain Darshan me Mithyatva aur Samyaktva Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf
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________________ श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || चिन्तन के विविध बिन्दु : 548 : स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा अनेक बार यह आश्वासन दिया गया है कि जो मेरे प्रति श्रद्धा रखेगा वह बन्धनों से छूट कर अन्त में मुझे ही प्राप्त हो जावेगा। गीता में भक्त के योगक्षेम की जिम्मेदारी स्वयं श्रीकृष्ण ही वहन करते हैं जबकि जैन और बौद्ध दर्शनों में ऐसे आश्वासनों का अभाव है। गीता में वैयक्तिक ईश्वर के प्रति जिस निष्ठा का उद्बोधन है वह सामान्यतया जैन और बौद्ध परम्पराओं में अनुपलब्ध ही है। उपसंहार सम्यक्दर्शन अथवा श्रद्धा का जीवन में क्या मूल्य है, इस पर भी विचार अपेक्षित है / यदि हम सम्यक्दर्शन को दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार करते हैं, जैसा कि सामान्यतया जैन और बौद्ध विचारणाओं में स्वीकार किया गया है, तो उसका हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। सम्यक्दर्शन जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है, वह अनासक्त जीवन जीने की कला का केन्द्रीय तत्त्व है / हमारे चरित्र या व्यक्तित्व का निर्माण इसी जीवन दृष्टि के आधार पर होता है। गीता में इसी तथ्य को यह कहकर बताया है कि यह पुरुष श्रद्धामय है और जैसी श्रद्धा होती है वैसा ही वह बन जाता है / हम अपने को जैसा बनाना चाहते हैं, अपनी जीवन दृष्टि का निर्माण भी उसी के अनुरूप करें। क्योंकि व्यक्ति की जैसी दृष्टि होती है वैसा ही उसका जीवन जीने का ढंग होता है और जैसा उसका जीवन जीने का ढंग होता है वैसा ही उसका चरित्र बन जाता है। और जैसा उसका चरित्र होता है वैसा ही उसके व्यक्तित्व का उभार होता है। अतः एक यथार्थ दृष्टिकोण का निर्माण जीवन की सबसे प्राथमिक आवश्यकता है। ----------------------0--0--0--0--0--0--0--0-0-0--0--0--0--0--0-2 1 0 3. स्वर्ग की दुनिया को पैरिस समझ लीजिए। जैसे कोई मनुष्य है अच्छी कमाई करके पैरिस में जा बैठे और वहाँ के राग-रंग में सारी सम्पत्ति लुटाकर वापस अपने गाँव आ जाय, इसी प्रकार में यहाँ कमाई करके जीव स्वर्ग में जाता है और वहाँ उसे खत्म करके वापिस लौट आता है। वहाँ सामायिक-पौषध आदि कुछ भी कमाई नहीं है , अतः जो कुछ शुभ सामग्री का योग मिला है वह मनुष्य जन्म में ही मिला है। -भाग 18 पृष्ठ 114 8-------------------------------------------------- r-o---------------- 80 गीता 1865-66 Jain Education International For Private & Personal Use Only ' www.jainelibrary.org