Book Title: Jain Darshan me Mithyatva aur Samyaktva Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ । चिन्तन के विविध बिन्दु : ५४६ : श्रद्धा कृषक में न हो तो वह भूमि में बीज ही नहीं बोबेगा । धर्म की उत्पत्ति में श्रद्धा उत्तम कारण मानी गई है । जब तक मनुष्य तत्त्व को देख या सुन नहीं लेता तब तक उसकी श्रद्धा स्थिर नहीं होती। साधना के क्षेत्र में प्रथम अवस्था में श्रद्धा एक परिकल्पना के रूप में ग्रहण होती है और वही अन्त में तत्त्वसाक्षात्कार बन जाती है। बुद्ध ने श्रद्धा और प्रज्ञा अथवा दूसरे शब्दों में जीवन के बौद्धिक और भावात्मक पक्षों में एक समन्वय किया है। यह एक ऐसा समन्वय है जिसमें न तो श्रद्धा अन्धश्रद्धा बनती है और न प्रज्ञा केवल बौद्धिक या तत्मिक ज्ञान बन कर रह जाती है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यकदर्शन के शंकाशीलता, आकांक्षा, विचिकित्सा आदि दोष माने गए हैं उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी पांच नीवरण माने गये हैं। जो इस प्रकार १. कामच्छन्द (कामभोगों की चाह) २. अव्यापाद (अविहिंसा) ३. स्त्यानगृद्ध (मानसिक और चैतसिक आलस्य) ४. औद्धत्य-कीकृत्य (चित्त की चंचलता), और ५. विचिकित्सा (शंका)। तुलनात्मक दृष्टि से अगर हम देखें तो बौद्ध-परम्परा का कामच्छन्द जैन-परम्परा के कांक्षा नामक अतिचार के समान हैं। इसी प्रकार विचिकित्सा को भी दोनों ही दर्शनों में स्वीकार किया गया है । जैन-परम्परा में संशय और विचिकित्सा दोनों अलग-अलग माने गए हैं लेकिन बौद्ध परम्परा दोनों का अन्तर्भाव एक में ही कर देती है । इस प्रकार कुछ सामान्य मतभेदों को छोड़ कर जैन और बौद्ध दृष्टिकोण एक-दूसरे के निकट ही आते हैं। गीता में श्रद्धा का स्वरूप एवं वर्गीकरण जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया कि गीता में सम्यकदर्शन के स्थान पर श्रद्धा का प्रत्यय ग्राह्य है। जैन-परम्परा में सामान्यतया सम्यक्दर्शन दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार हुआ है और अधिक से अधिक उसमें यदि श्रद्धा का तत्त्व समाहित है तो वह तत्त्वश्रद्धा ही है। लेकिन गीता में श्रद्धा शब्द का अर्थ प्रमुख रूप से ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा ही माना गया है । अतः गीता में श्रद्धा के स्वरूप पर विचार करते समय हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि जैन-दर्शन में श्रद्धा का जो अर्थ है वह गीता में नहीं है। यद्यपि गीता मी यह स्वीकार करती है कि नैतिक जीवन के लिए संशयरहित होना आवश्यक है। श्रद्धारहित यज्ञ, तप, दान आदि सभी नैतिक कर्म निरर्थक ही माने गये हैं।७५ गोता में श्रद्धा तीन प्रकार की मानी गई है-१. सात्विक, २. राजस और ३. तामस । सात्विक श्रद्धा सतोगुण से उत्पन्न होकर देवताओं के प्रति होती है। राजस श्रद्धा यक्ष और राक्षसों के प्रति होती है। इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है । तामस श्रद्धा भूत-प्रेत आदि के प्रति होती है। ७५ गीता १७४१५ ७४ विसुद्धिमग्ग, पृ० ५१ (भाग-१) ७६ गीता १७।२-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30