Book Title: Jain Darshan me Mithyatva aur Samyaktva Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf
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:५४५: मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक
प्रति श्रद्धा है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यकदर्शन का अर्थ देव, गुरु और धर्म के प्रति निष्ठा माना गया है उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में श्रद्धा का अर्थ बुद्ध, संघ और धर्म के प्रति निष्ठा है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में देव के रूप में अरिहंत को साधना आदर्श के रूप में स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में साधना आदर्श के रूप में बुद्ध और बुद्धत्व को स्वीकार किया जाता है। साधना-मार्ग के रूप में दोनों ही धर्म के प्रति निष्ठा को आवश्यक बताते हैं । जहाँ तक साधना के पथ-प्रदर्शक का प्रश्न है जैन-परम्परा में पथ-प्रदर्शक के रूप में गुरु को स्वीकार किया गया है जबकि बौद्ध-परम्परा उसके स्थान पर संघ को स्वीकार करती है।
जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया, जैन-दर्शन में सम्यकदर्शन के दृष्टिकोणपरक और श्रद्धापरक ऐसे दो अर्थ स्वीकृत रहे हैं। बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा और सम्यक्दृष्टि दो भिन्न-भिन्न तथ्य माने गये हैं। दोनों समवेत रूप से जैन-दर्शन के सम्यकदर्शन शब्द के अर्थ की अवधारणा को बौद्ध-दर्शन में स्पष्ट कर देते हैं ।
बौद्ध-परम्परा में सम्यकदृष्टि का अर्थ दुःख, दुःख के कारण, दुःख निवृत्ति का मार्ग और दुःख विमुक्ति इन चार आर्यसत्यों की स्वीकृति रहा है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में वह जीवादि नव तत्त्वों का श्रद्धान् है उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में वह चार आर्यसत्यों का श्रद्धान है।
यदि हम सम्यकदर्शन को तत्त्वदृष्टि या तत्त्वश्रद्धान से भिन्न श्रद्धापरक अर्थ में गिनते हैं तो बौद्ध परम्परा में उसकी तुलना श्रद्धा से की जा सकती है। बौद्ध परम्परा में श्रद्धा पाँच इन्द्रियों में प्रथम इन्द्रिय, पाँच बलों में अन्तिम बल और स्रोतापन्न अवस्था के चार अंगों में प्रथम अंग मानी गई है । बौद्ध परम्परा में श्रद्धा का अर्थ चित्त की प्रसादमयी अवस्था माना गया है । श्रद्धा जब चित्त में उत्पन्न होती है तो वह चित्त को प्रीति और प्रामोद्य से भर देती है और चित्तमलों को नष्ट कर देती है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बौद्ध परम्परा में श्रद्धा अन्धविश्वास नहीं वरन् एक बुद्धिसम्मत अनुभव है। यह विश्वास करना नहीं वरन् साक्षात्कार के पश्चात् उत्पन्न हुई तत्त्वनिष्ठा है। बुद्ध एक ओर यह मानते हैं कि धर्म का ग्रहण स्वयं के द्वारा जानकर ही करना चाहिए । समग्र कलामासुत्त में उन्होंने इसे सविस्तार स्पष्ट किया है। दूसरी ओर वे यह भी आवश्यक समझते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति बुद्धधर्म और संघ के प्रति निष्ठावान रहे। बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से समन्वित करके चलते हैं। मज्झिमनिकाय में बुद्ध यह स्पष्ट कर देते हैं कि समीक्षा के द्वारा ही उचित प्रतीत होने पर धर्म का ग्रहण करना चाहिए। २ विवेक और समीक्षा यह सदैव ही बुद्ध को स्वीकृत रहे हैं । बुद्ध भिक्षुओं को सावधान करते हुए कहते थे कि भिक्षुओ, क्या तुम शास्ता के गौर से तो हाँ नहीं कह रहे हो ? भिक्षुमो, जो तुम्हारा अपना देखा हुआ, अपना अनुभव किया हुआ है क्या उसी को तुम कह रहे हो। इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से समन्वित कर देते हैं। सामान्यतया बौद्ध-दर्शन में श्रद्धा को प्रथम और प्रज्ञा को अन्तिम स्थान दिया गया है । साधनामार्ग की दृष्टि से श्रद्धा पहले आती है और प्रज्ञा उसके पश्चात् उत्पन्न होती है। श्रद्धा के कारण ही धर्म का श्रवण, ग्रहण, परीक्षण और वीर्यारम्भ होता है । नैतिक जीवन के लिए श्रद्धा कैसे आवश्यक होती है इसका सुन्दर चित्रण बौद्ध-परम्परा के सौन्दरनन्द नामक ग्रन्थ में किया गया है । उसमें बुद्ध नन्द के प्रति कहते हैं कि पृथ्वी के भीतर जल है यह श्रद्धा जब मनुष्य को होती है तब प्रयोजन होने पर पृथ्वी को प्रयत्नपूर्वक खोदता है। भूमि से अन्न की उत्पत्ति होती है, यदि यह
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७३ मज्झिमनिकाय ११४।८
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