Book Title: Jain Darshan me Mithyatva aur Samyaktva Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 2
________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ मिध्यात्व क्या है ? जैन विचारकों की दृष्टि में वस्तुतत्त्व का अपने यथार्थस्वरूप में बोध नहीं होना, यही मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व लक्ष्य विमुखता है, तत्त्वरुचि का अभाव है, सत्य के प्रति जिज्ञासा या अभीप्सा का अभाव है। बुद्ध ने अविद्या को वह स्थिति माना है जिसके कारण व्यक्ति परमार्थ को सम्यक्रूप से नहीं जान पाता है । बुद्ध कहते हैं- "आस्वाद दोष और मोक्ष को यथार्थत: नहीं जानता है, यही अविद्या है ।" मिथ्या स्वभाव को स्पष्ट करते हुए बुद्ध कहते हैं 'जो मिथ्या दृष्टि है - मिथ्या समाधि है— इसी को मिथ्या स्वभाव कहते हैं ।"" मिथ्यात्व को हम एक ऐसा दृष्टिकोण कह सकते हैं जो सत्यता की दिशा से विमुख है । संक्षेप में मिथ्यात्व असत्याभिरुचि है, राग और द्वेष के कारण दृष्टिकोण का विकृत हो जाना है । जन-दर्शन में मिथ्यात्व के प्रकार - पूज्यपाद देवनन्दी ने मिथ्यात्व को उत्पत्ति की दृष्टि से दो प्रकार का बताया है : १. नैसर्गिक (अनर्जित) — जो मिथ्यात्व मोहकर्म के उदय से होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यात्व है। २. परोपदेश पूर्वक - जो मिथ्या धारणा वाले लोगों के उपदेश से स्वीकार किया जाता है । अतः यह अर्जित या परोपदेशपूर्वक मिध्यात्व है । चिन्तन के विविध बिन्दु ५२० - Jain Education International यह अर्जित मिथ्यात्व चार प्रकार का है (अ) क्रियावादी - आत्मा को कर्ता मानना (ब) अक्रियावादी - आत्मा को अकर्ता मानना ( स ) अज्ञानी - सत्य की प्राप्ति को सम्भव नहीं मानना (द) वैनयिक रुढ़-परम्पराओं को स्वीकार करना । स्वरूप की दृष्टि से जैनागमों में मिथ्यात्व पाँच प्रकार का भी माना गया है ।"" ६ संयुत्तनिकाय २१३श३शद १. एकान्त जैन तत्त्वज्ञान में वस्तुतत्व को अनन्तधर्मात्मक माना गया है। उसमें समान जाति के अनन्त गुण ही नहीं होते हैं वरन् विरोधी गुण भी समाहित होते हैं । अतः वस्तुतत्त्व का एकांगी ज्ञान उसके सन्दर्भ में पूर्ण सत्य को प्रकट नहीं करता । वह आंशिक सत्य होता है, पूर्ण सत्य नहीं । आंशिक सत्य को जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो वह मिथ्यात्व हो जाता है न केवल जैन विचारणा वरन् दौद्ध विचारणा में भी एकान्तिक ज्ञान को मिथ्या कहा गया है। बुद्ध कहते हैं- " भारद्वाज | सत्यानुरक्षक विश पुरुष को एकांश से ऐसी निष्ठा करना योग्य नहीं है कि यही सत्य है और बाकी सब मिथ्या है।" बुद्ध इस सारे कथानक में इसी बात पर बल देते हैं कि सापेक्षिक कथन के रूप में ही सत्यानुरक्षण होता है, अन्य प्रकार से नहीं । उदान में भी बुद्ध ने कहा है- जो एकांतदर्शी हैं वे ही विवाद करते हैं"। इस प्रकार बुद्ध ने भी एकांत को मिथ्यात्व माना है । २. विपरीत - वस्तुतत्त्व का उसके स्व-स्वरूप के रूप में ग्रहण नहीं कर उसके विपरीत रूप ७ संयुत्तनिकाय ४३ २३३१ ८ तत्वार्थ सर्वार्थसिद्धि टीका - ( पूज्यवाद ) ८११ ० ६ मज्झिमनिकाय चंकित उद्धृत महायान, पृ० १२५, For Private & Personal Use Only १० उदान ६।४ www.jainelibrary.org

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