Book Title: Jain Darshan me Mithyatva aur Samyaktva Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 18
________________ Jain Education International श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ चिन्तन के विविध बिन्दु ५३६ साधना में अग्रसर होता है, वह 'कारक सम्यक्त्व' है। कारक सम्यक्त्व ऐसा यथार्थ दृष्टिकोण है जिसमें व्यक्ति आदर्श की उपलब्धि के हेतु सक्रिय एवं प्रयासशील बन जाता है। नैतिक दृष्टि से कहें तो 'कारक-सम्यक्व' शुभाशुभ विवेक की वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति जिस शुभ का निश्चय करता है उसका आचरण भी करता है । यहाँ ज्ञान और क्रिया में अभेद होता है। सुकरात का यह वचन कि 'ज्ञान ही सद्गुण है' इस अवस्था में लागू होता है । २. रोचक सम्यक्त्व रोचक सम्यक्त्व सत्यबोध की वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति शुभ को शुभ और अशुभ को अशुभ के रूप में जानता है और शुभ की प्राप्ति की इच्छा भी करता है, लेकिन उसके लिए प्रयास नहीं करता । सत्यासत्यविवेक होने पर भी सत्य का आचरण नहीं कर पाना, यह रोचक सम्यक्त्व है । जैसे कोई रोगी अपनी रुग्णावस्था को भी जानता है, रोग की औषधि भी जानता है और रोग से मुक्त होना भी चाहता है लेकिन फिर भी औषधि का ग्रहण नहीं कर पाता वैसे ही रोचक सम्यक्त्व वाला व्यक्ति संसार के दुःखमय यथार्थ स्वरूप को जानता है, उससे मुक्त होना भी चाहता है, उसे मोक्ष - मार्ग का भी ज्ञान होता है फिर वह सम्यक्चारित्र का पालन ( चारित्रमोहकर्म के उदय के कारण ) नहीं कर पाता है । इस अवस्था को महाभारत के उस वचन के समकक्ष माना जा सकता है, जिसमें कहा गया है कि धर्म को जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को जानते हुए भी उससे निवृत्ति नहीं होती है। ३. दीपकसम्यक्त्व वह अवस्था जिसमें व्यक्ति अपने उपदेश से दूसरों में तत्वजिज्ञासा उत्पन्न कर देता है और उसके परिणामस्वरूप होने वाले यथार्थबोध का कारण बनता है, दीपक सम्यक्त्व कहलाती है । दीपक सम्यक्त्व वाला व्यक्ति वह है जो दूसरों को सन्मार्ग पर लगा देने का कारण तो बन जाता है। लेकिन स्वयं कुमार्ग का ही पथिक बना रहता है जैसे कोई नदी के तौर पर खड़ा हुआ व्यक्ति किसी नदी के मध्य में थके हुए तैराक का उत्साहवर्धन कर उसके पार लगने का कारण बन जाता है यद्यपि न तो स्वयं तैरना जानता है और न पार ही होता है । सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण एक अन्य प्रकार से भी किया गया है - जिसमें कर्म प्रकृतियों के क्षयोपशम के आधार पर उसके भेद किये हैं। जैन विचारणा में अनन्तानुबंधी (तीव्रतम) क्रोध, मान, माया ( कपट), लोभ तथा मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह यह सात कर्मप्रकृतियाँ सम्यक्त्व ( यथार्थबोध ) की विरोधी मानी गयी हैं, इसमें सम्यक्त्वमोहनीय को छोड़ शेष छह कर्मप्रकृतियां उदय होती हैं तो सम्यक्त्व का प्रगटन नहीं हो पाता । सम्यक्त्वमोह मात्र सम्यक्त्व की निर्मलता और विशुद्धि में बाधक होता है। कर्मप्रकृतियों की तीन स्थितियां हैं १. क्षय, २. उपशम, और ३. क्षयोपशम । इसी आधार पर सम्यक्त्व का यह वर्गीकरण किया गया है जिसमें सम्यक्त्व तीन प्रकार का होता है १. औपशमिक सम्यक्त्व २. क्षायिक सम्यक्त्व, और ३. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व । ५३ देखिए - पंचदशी ६।१७६ उद्धृत -- भारतीय दर्शन, पृ० १२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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