Book Title: Jain Darshan me Mithyatva aur Samyaktva Ek Tulnatmaka Vivechan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf

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Page 12
________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ किया गया है ।" दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग, उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। प्राचीन जैन आगमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग बहुलता से देखा जाता है। तस्वार्थमूत्र" और उत्तराध्ययन सूत्र" में दर्शन शब्द का अर्थ तत्त्वश्रद्धा माना गया है। परवर्ती जैन साहित्य में दर्शन शब्द का देव गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी व्यवहार किया गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक्दर्शन तत्व साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अयों को अपने में समेटे हुए है। इन पर थोड़ी गहराई से विचार करना अपेक्षित है। ३५ क्या सम्यक्दर्शन के उपरोक्त अर्थ परस्पर विरोधी हैं ? सम्यक्दर्शन शब्द के विभिन्न अर्थों पर विचार करने से पहले हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन-सा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रथम था और उसके पश्चात् किन-किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थों में प्रयुक्त हुआ । प्रथमतः हम देखते हैं कि बुद्ध और महावीर के अपने समय में प्रत्येक धर्मं प्रवर्तक अपने सिद्धान्त को सम्यकदृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था । बोद्धागमों में ६२ मिथ्यादृष्टियों एवं जैनागम सूत्रकृतांग में ३६३ मिथ्यादृष्टियों का विवेचन मिलता है । लेकिन वहाँ पर मिथ्यादृष्टि शब्द अश्रद्धा अथवा मिथ्या श्रद्धा के अर्थ में नहीं वरन् गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है । बाद में जब यह प्रश्न उठा कि गलत दृष्टिकोण को किस सन्दर्भ में माना जावे, तो कहा गया कि जीव (आत्मतत्त्व ) और जगत के सम्बन्ध में जो गलत दृष्टिकोण है, वही मिथ्यादर्शन या मिथ्यादृष्टि है । इस प्रकार मिथ्यादृष्टि से तात्पर्य हुआ आत्मा और जगत के स्वरूप के विषय में गलत दृष्टिकोण उस युग में प्रत्येक धर्म मार्ग का प्रवर्तक आत्मा और जगत के स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक् दृष्टिकोण अथवा सम्यदर्शन और अपने विरोधी के दृष्टिकोण को मिथ्यादृष्टि अथवा मिच्यादर्शन कहता था। बाद में प्रत्येक सम्प्रदाय जीवन और जगत सम्बन्धी अपने दृष्टिकोण पर विश्वास करने को सम्यक्दर्शन कहने लगा और जो लोग उसकी मान्यताओं के विपरीत मान्यता रखते थे उनको मिथ्यात्वी कहने लगा और उनकी मान्यता को मिथ्यादर्शन। इस प्रकार सम्यक्दर्शन शब्द तत्त्वार्थश्रद्धान ( जीव और जगत के स्वरूप की) के अर्थ में अभिरुढ़ हुआ। लेकिन तत्वार्थश्रज्ञान के अर्थ में भी सम्यदर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था। यद्यपि उसकी भावना में दिशा बदल चुकी थी, उसमें श्रद्धा का तत्त्व प्रविष्ट हो गया था लेकिन वह था थी तत्त्व के स्वरूप की मान्यता के सन्दर्भ में । वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी । श्रमणपरम्परा में सम्यदर्शन का दृष्टिकोणपरक अर्थ ही ग्राह्य था जो बाद में तत्त्वार्थश्रद्धान के रूप में विकसित हुआ। यहाँ तक तो था में बौद्धिक पक्ष निहित था श्रद्धा ज्ञानात्मक थी लेकिन जैसे-जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ, उसका प्रभाव जैन और बौद्ध श्रमण परम्पराओं पर भी पड़ा । तत्त्वार्थ की श्रद्धा जब 'बुद्ध' और 'जिन' पर केन्द्रित होने लगी- वह ज्ञानात्मक से मावास्मक और निर्वैयक्तिक से वैयक्तिक बन गई। जिसने जैन और बौद्ध परम्पराओं में भक्ति के तत्त्व ३२ अभि० रा० खण्ड ५, पृ० २४२५ ३३ तत्वार्थ० १२ ३४ उत्तरा० २८/३५ ३५ सामायिक सूत्र सम्यक्त्व पाठ Jain Education International चिन्तन के विविध बिन्दु : ५३० : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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