Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ को बदल सकता है १४०; आत्मा स्वतंत्र है या कर्म के अधीन? १४२; उदीरणा १४३; उदीरणा का हेतु १४३; निर्जरा १४३; कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया १४४; अनादि का अन्त कैसे? १४५; लेश्या १४६; कर्मों का. संयोग और वियोग : आध्यात्मिक विकास और ह्रास १४८ ९. जैन दर्शन का सापेक्षवाद : स्याद्वाद १४९-१५६ .. स्याद्वाद १४९; स्याद्वाद : स्वरूप १४९; स्पतभंगी १५१; अहिंसा विकास . में अनेकांत दृष्टि का योग १५३; तत्त्व और आचार पर अनेकांत-दृष्टि १५५ . १०. समन्वय का राजमार्ग : नयवाद । १५७-१६१ सापेक्ष दृष्टि १५७; भगवान महावीर की अपेक्षा-दृष्टियाँ १५८; समन्वय की दिशा १६०; समन्वय के दो स्तम्भ १६०; नय १६०; सत्य का व्याख्या-द्वार १६१ इतिहास और साहित्य १. भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक १६५-१८० कालचक्र १६५; कुलकर व्यवस्था १६७; तीन दंड नीतियाँ १६८; खाद्य-समस्या का समाधान १६९; शिल्प और व्यवसाय १७०; सामाजिक और सांस्कृतिक परम्राओं का सूत्रपात १७०; साम्राज्य-लिप्सा १७१; युद्ध का पहला चरण १७३, भरत का अनासक्त योग १७५; श्रामण्य की ओर १७६; तीर्थंकर अरिष्टनेमि १७६; तीर्थंकर पार्श्व १७८ २. भगवान् महावीर और उनकी शिक्षाएँ १८१-२०२ . जन्म और परिवार १८१; नाम और गोत्र १८१; यौवन और विवाह १८२; महाभिनिष्क्रमण १८२; साधना और सिद्धि १८२; धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन १८५; संघ-व्यवस्था १८७; मुनि की दिनचर्या १८७; श्रावक १८८; श्रावक के गुण १८८; शिष्टाचार १८९; भगवान महावीर के समकालीन धर्म-सम्प्रदाय १८९; महावीर के सिद्धान्त १९१; मनुष्य की ईश्वरीय सत्ता का संगान १९२; नमस्कार महामंत्र १९३; चतुःशरण सूत्र १९४; धर्म की व्यापक धारणा १९४; तप और ध्यान का समन्वय १९५; संप्रदाय-विहीन धर्म १९७; नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा १९९; निर्वाण २०० ३. उत्तरकालीन परम्परा २०३-२०६ गणधर गौतम २०३; गणधर सुधर्मा २०३; आर्य जंबूकुमार २०४; संप्रदाय-भेद २०४; श्वेताम्बर-दिगम्बर २०५; चैत्यवास परम्परा २०५: स्थानकवासी २०५; तेरापंथ २०६

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