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दर्शन है सत्यं शिवं सुन्दरं की त्रिवेणी (आप्तजनों) की विचार-पद्धति भी दर्शन है। तत्त्व-उपलब्धि की दृष्टि से दर्शन एक है। विचार-पद्धतियों की दृष्टि से वे (दर्शन) अनेक हैं।
__ इस विषय में ऋग्वेद का यह सूक्त मननीय है—“एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।"
शिवत्व के साधन की अवधारणा में कुछ दर्शनों के विचार निम्न प्रकार
सांख्य दर्शन—प्रकृति और पुरुष का विवेक वेदान्त दर्शन-विद्या बौद्ध दर्शन-अष्टांग मार्ग अष्टांग हैं
(१) सम्यक् दृष्टि (२) सम्यक् संकल्प (३) सम्यक् वचन (४) सम्यक् कर्म (५) सम्यक् आजीव (६) सम्यक् प्रधान (७) सम्यक् स्मृति (८) सम्यक् समाधि । दर्शन की प्रणाली
दर्शन की प्रणाली युक्ति पर आधारित होती है। दर्शन तत्त्व (अस्तित्व अथवा द्रव्य और पर्याय) ये संबंध रखता है इसीलिए उसे तत्त्व का विज्ञान (Metaphysics) कहना चाहिए। तत्त्व पर विचार करने के लिए युक्ति या तर्क का सहारा अपेक्षित होता है। दर्शन के क्षेत्र में तार्किक प्रणाली के द्वारा पदार्थ, आत्मा, अनात्मा, गति, स्थिति, समय, अवकाश, पुद्गल, जीवन, मस्तिष्क, जगत्, ईश्वर आदि तथ्यों की व्याख्या, आलोचना, स्पष्टीकरण या परीक्षा की जाती है इसीलिए एकांगी दृष्टि से दर्शन की अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं :
१. जीवन की बौद्धिक मीमांसा दर्शन है। २. जीवन की आलोचना दर्शन है।
इनमें पूर्णता नहीं, किन्तु अपूर्णता में भी सत्यांश अवश्य है। आस्तिक दर्शन की भित्ति-आत्मवाद
अनेक व्यक्ति यह नहीं जानते कि “मैं कहां से आया हूँ? मेरा पुनर्जन्म होगा या नहीं? मैं कौन हूँ? यहाँ से फिर कहाँ जाऊँगा?"
इस जिज्ञासा से दर्शन का जन्म होता है। धर्म-दर्शन की मूल भित्ति आत्मा है। यदि आत्मा है। तो वह है, नहीं तो नहीं। यहीं से आत्म-तत्त्व आस्तिकों का आत्मवाद बन जाता है। वाद की स्थापना के लिए दर्शन और उसकी सच्चाई के लिए धर्म का विस्तार होता है।