Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ ५. विश्व : विकास और ह्रास ६८-८१ विश्व-स्थिति का मूल सूत्र ६८; विकास और ह्रास ६९; विकास और ह्रास के कारण ७१; प्राणि-विभाग ७२; उत्पत्ति-स्थान ७३; स्थावर जगत् ७३; संघीय जीवन ७६; साधारण-वनस्पति जीवों का परिमाण ७७; प्रत्येक वनस्पति ७७; प्रत्येक वनस्पति जीवों का परिमाण ७७; इन्द्रिय-विकास की अपेक्षा से जीवों के भेद ७७; शारीरिक परिवर्तन का ह्रास या उलटा क्रम ७९; प्रभाव के निमित्त ७९ . ६. जन्म-मृत्यु का चक्रव्यूह .८२-८९ संसार का सेतु ८२; जन्म ८२; गर्भ ८३; गर्भ-प्रवेश की स्थिति ८४; बाहरी स्थिति का प्रभाव ८४; प्राण और पर्याप्ति ८४; इन्द्रिय-ज्ञान और पाँच जातियाँ ८६; मानस-ज्ञान और संज्ञी-असंज्ञी ८६; इन्द्रिय और मन ८७; जाति-स्मृति ८८; अतीन्द्रिय ज्ञान-योगीज्ञान ८८ ७. मैं कौन हूँ? ९०-१२६ दो प्रवाह : आत्मवाद और अनात्मवाद ९०; आत्मा क्यों? ९३; भारतीय दर्शन में आत्मा के साधक तर्क ९४; जैन-दृष्टि से आत्मा का स्वरूप ९७; भारतीय दर्शन में आत्मा का स्वरूप ९९; औपनिषदिक दृष्टि और जैन दृष्टि की तुलना १०१; सजीव और निर्जीव पदार्थ का पृथक्करण १०२; जीव के व्यावहारिक लक्षण १०४; जीव के नैश्चयिक लक्षण १०५; मध्यम और विराट परिमाण १०५; बद्ध और मुक्त १०७; शरीर और आत्मा १०८; मानसिक क्रिया का शरीर पर प्रभाव ११०; दो विसदृश पदार्थों (अरूप और सरूप) का सम्बन्ध ११०; विज्ञान और आत्मा (भौतिकवादी वैज्ञानिक की समीक्षा) १११; आत्मा पर विज्ञान के प्रयोग ११४; चेतना का पूर्वरूप क्या है? ११५; इन्द्रिय और मस्तिष्क आत्मा नहीं ११७; कृत्रिम मस्तिष्क चेतन नहीं ११८; आत्मा के प्रदेश और जीवकोष ११९; अस्तित्व-सिद्धि के दो प्रकार ११९; स्वतन्त्र सत्ता का हेतु १२१; पुनर्जन्म १२१; अन्तर-काल १२४; स्व-नियमन १२५ ८. मैं हूँ भाग्य का निर्माता १२७-१४८ जगत्वैचित्र्य का हेतु १२७; आत्मा का आन्तरिक वातावरण १२८; परिस्थिति १२८; कर्म की पौट गलिकता १२९: आत्मा और कर्म का सम्बन्ध १३०; बंध के हेतु १३०; कर्म : स्वरूप और कार्य १३१; बंध की प्रक्रिया १३३; कर्म कौन बाँधता हैं ? १३४; कर्म-बन्ध कैसे? १३४; फल-विपाक १३४: कर्म के उदय से क्या होता है? १३५; फल की प्रक्रिया १३६; उदय १३७; अपने आप उदय में आने वाले कर्म के हेतु १३७; दूसरों द्वारा उदय में आने वाले कर्म-हेतु १३८: पुण्य-पाप १३८: मिश्रण नहीं होता है १४०; धर्म और पुण्य १४०; पुरुषार्थ भाग्य

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