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जैन दर्शन और संस्कृति पाश्चात्य दर्शन के साथ अध्यात्म-विद्या अथवा योग-विद्या की अनिवार्यता नहीं रही। चार्वाक दर्शन का उसमें विश्वास ही नहीं है। नैयायिक और वैशेषिक दर्शन मुख्यतया बुद्धि अथवा तर्क-विद्या-प्रधान है।
सब तत्त्वों में सबसे प्रमुख तत्त्व आत्मा है। जो “आत्मा को जान लेता है, वह सबको जान लेता है।” ।
अस्तित्व की दृष्टि से सब तत्त्व समान हैं, किन्तु मूल्य की दृष्टि से आत्मा सबसे अधिक मूल्यवान् तत्त्व है। मूल्य का निर्णय आत्मा पर ही निर्भर है। वस्तु का अस्तित्व स्वयंजात होता है, किन्तु उसका मूल्य चेतना से सम्बद्ध हुए बिना नहीं होता। ‘गुलाब का फूल लाल है'-कोई जाने या न जाने, किन्तु 'गुलाब का फूल मन हरने वाला है' यह बिना जाने नहीं होता। वह तब तक मनोहर नहीं, जब तक किसी आत्मा को वैसा न लगे। 'दूध सफेद है'—इसके लिए चेतना से सम्बन्ध होना आवश्यक नहीं, किन्तु 'वह उपयोगी है'—यह मूल्य-विषयक निर्णय चेतना से सम्बन्ध स्थापित हुए बिना नहीं होता। तात्पर्य यह है कि मनोहारी, उपयोगी, प्रिय-अप्रिय आदि 'मूल्यांकन' पर निर्भर है। आत्मा द्वारा अज्ञात वस्तु-वृत्त अस्तित्त्व के जगत् में रहते हैं। उनका अस्तित्व-निर्णय और मूल्य-निर्णय—ये दोनों आत्मा द्वारा ज्ञात होने पर होते हैं। 'वस्तु का अस्तित्व है'—इसमें चेतना की कोई अपेक्षा नहीं, किन्तु वस्तु जब ज्ञेय बनती है तब चेतना द्वारा उसके अस्तित्व का निर्णय होता है। यह चेतना के साथ वस्तु के सम्बन्ध की पहली कोटि है। दूसरी कोटि में उसका मूल्यांकन होता है तब वह हेय या उपादेय बनती है। उक्त विवेचन के अनुसार दर्शन के दो कार्य हैं
१. वस्तुवृत्त-विषयक निर्णय । २. मूल्य-विषयक निर्णय ।
ज्ञेय, हेय और उपादेय-इस त्रिपुटी से इसी तत्त्व का निर्देशन मिलता है। जैन दर्शन में यथार्थ ज्ञान ही प्रमाण माना जाता है। कारण यही है कि वस्तुवृत्त के निर्णय (प्रिय वस्तु के स्वीकार और अप्रिय वस्तु के अस्वीकार) में वही क्षम है।
एक विचार आ रहा है—दर्शन को यदि उपयोगी बनना हो तो उसे वस्तु-वृत्तों को खोजने की अपेक्षा उनके प्रयोजन अथवा मूल्य को खोजना चाहिए।
भारतीय दर्शन इन दोनों शाखाओं को छूता रहा है। उसने जैसे अस्तित्व-विषयक समस्या पर विचार किया है, वैसे ही अस्तित्व से संबंध रखने वाली मूल्यों की समस्या पर भी विचार किया है। ज्ञेय, हेय और उपादेय का ज्ञान उसी का फल है।