Book Title: Ishtopadesh Author(s): Sahajanand Maharaj Publisher: Sahajanand Shastramala Merath View full book textPage 5
________________ आवरण करने वाले जो विभाव है, रागद्वेष विषयकषाय शल्य आदि जितने विभाव है। उन सबको वह दूर करता है। कैसे वह दूर करता है? स्वभाव में और उन पर भावो में भेदज्ञान का उपयोग करके करता है। ज्ञानी की सावधानी सहित वर्तना भेदविज्ञान के यत्न में इस ज्ञाता के पहिले तो एक साधारण सावधानी होती है जिसमें यह इस शरीर से भिन्न आत्मा को परखता है। यद्यपि अन्तर में सावधानी का माद्दा वही पूर्णरूपेण पड़ा हुआ है लेकिन अत्यन्त अधिक सावधानी की आवश्यकता नही रहती है किन्तु उसकी आंतरिक सावधानी का सम्बंध रखकर जो साधारण सावधानी चलती है उससे ही शरीर और आत्मा में भेद की परख हो जाती है, यह पहिली सावधानी है। इसके पश्चात् अंतरंग में एक क्षेत्रावगाह से पड़े हुए जो अन्य सूक्ष्म कार्माण आदि पुद्गल द्रव्य है, जिनका इस आत्मा के साथ निमित्तनैमित्तिक बंधन है उन कार्माण द्रव्यो से भी अपने को जुदा कर लेता है। इसके पश्चात् तिसरी सावधानी में कुछ विशेष ज्ञानबल लगाना है। प्रवर्तते हुए रागद्वेषादिक भावो से यह पृथक हैं, इनसे भिन्न यह मैं ज्ञानमात्र आत्मा हूं ऐसा भेद डालना निरखना यह सूक्ष्म सावधानी का काम है। जहाँ रागद्वेष विषय कषायो की कल्पनाए ये दूर हुई कि अपने आप में बसा हुआ यह ज्ञायकस्वरूप स्वयं विकसित हो जाता है। इसी कारण यह तत्त्वप्रभु परमात्मा स्वयंभू कहलाता है । - I परमात्मा की प्रभुता और विभुता इस परमात्मा का नाम प्रभु भी है। जो प्रकृष्ट रूप से हो उसे प्रभु कहते है संसार अवस्था में किसी विशिष्ट रूप रह रहा था, अब वह विशिष्ष्ट दशा को त्याग कर ज्ञानोपयोग में बसने रूप उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त हो रहा है। यह प्रभु कहलाता है यह परमात्मा विभु भी कहलाता है। जो व्यापकरूप से हो उसे विभु कहते है। यह ज्ञानस्वरूप परमात्मा ज्ञान द्वारा समस्त लोक और अलोक में व्यापक है, इसी कारण इस परमात्मा का नाम विभु है और इस ही परमात्मा को स्वयंभू कहते है। जो यह विकास स्वयं प्रकट हुआ है। परमात्मा का दर्शन ज्ञानरूप में ही किया जा सकता हे और परमात्मा के दर्शन में ही वास्तविक शान्ति मिलती है। अधिक से अधिक समय इस ज्ञानमय परमात्मतत्व के दर्शन के लिए लगाएँ, इस ही को व्यवहार धर्म की उन्नति कहते है। ज्ञानस्वरूप के दर्शन से जीवन की सफलता भैया ! साधुजन तो चौबीस घंटा इस ही परमात्मतत्व के दर्शन के लिए लगाते है और फिर श्रावको में भी उत्कृष्ट श्रावकजन अपना बहुत समय इस परमात्मतत्व के दर्शन में लगाते है। और उससे भी कुछ नीचे श्रावकजन भी और विशेष नही तो 5-5 घंटे बाद समझिये सामायिक के रूप में अपने परमात्मा दर्शन के लिये सावधान बनाते है। इस मनुष्य भव को पाकर करने योग्य काम एक यही है। अन्य - अन्य कार्यो में व्यस्त होने से तत्व की बात क्या मिल जायगी? इसकी प्रगति तो रत्नत्रय की प्रगति में है जितना अधिक काल ज्ञानस्वरूप अपने आपको निरखने में जाय उतना काल इसका सफल है। ज्ञान के रूप में परमात्मा का दर्शन होता है, ज्ञान के रूप में अपने आत्मा का अनुभव होता है और विशुद्ध ज्ञान की परिणति के साथ आनन्द का विकास चलता है, इसी कारण परमात्मा को सम्यग्ज्ञान स्वरूप की मुद्रा में निरखा जा रहा है। 5 1—Page Navigation
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